मुस्लिम समाज में जातिवाद और नस्लवाद कैसे पनपा?
14 अक्टूबर 2021 को adarshmuslim.com पर प्रकाशित आर्टिकल बेटी बचाओ-जातिवादी सोच मिटाओ में हमने क़ौम व क़बीला आधारित पहचान के बारे में इस्लामी नज़रिये को आपके सामने रखा था।
हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि कर्म-आधारित जातिवाद, नस्लीय गर्व की भावना और ऊंच-नीच की इस्लामी समाज में कोई जगह नहीं है। इस आर्टिकल में यह बताने की कोशिश की गई है कि मुस्लिम समाज में जातिवाद और नस्लीय गर्व की भावना वाली यह बुराई कब और कैसे पनपी? इस आर्टिकल को पूरा पढ़िये, समझिये और कमेंट बॉक्स में अपनी राय लिखियेगा।
अल्लाह तआला ने अपने आख़री रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को नबी बनाकर भेजे जाने के बारे में क़ुरआन करीम में फ़रमाया,
बेशक अल्लाह ने ईमानवालों पर एहसान किया जब उनमें उन्हीं में से एक रसूल भेजा। वह उनको अल्लाह की निशानियां बताते हैं, और उनका तज़किया करते हैं, और उनको किताब और हिकमत सिखाते हैं। और बेशक वे लोग इससे पहले खुली गुमराही में थे। (आले-इमरान : 164)
इस आयत में अल्लाह तआला ने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बेअसत को अपना एहसान क़रार देते हुए उनके चार काम बताए हैं,
पहला काम : यत्-लु अलैहिम आयातिही यानी अल्लाह तआला की निशानियां बयान करना, जो हमारे अपने वजूद में और हमारे आसपास मौजूद हैं।
दूसरा काम : युज़क्कीहिम यानी लोगों का तज़किया (शुद्धिकरण) करना। उनके दिलों में जहालत के दौर के जो निशानात और रस्मों-रिवाजों के तौर-तरीक़े मौजूद हैं, उनको मिटाना और साफ़ करना।
तीसरा काम : युअल्लिमुल किताब किताब यानी क़ुरआन की तालीम देना।
चौथा काम : वल् हिक्मह हिकमत की बातों की तालीम देना। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हिकमत की जो बातें बताईं उनको हदीस कहा जाता है।
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मेहनत के नतीजे में एक ऐसा मुस्लिम समाज बना जो हर मामले में आदर्श था। सहाबा-ए-किराम ने भी नबवी मिशन को आगे बढ़ाया, जिसके नतीजे में बहुत कम अर्से में इस्लाम आधी दुनिया में फैल गया।
शैतान की साज़िशों का शिकार होकर मुस्लिम समाज बाद में अनेक बुराइयों में गिरफ़्तार हो गया। सबसे बड़ी ख़राबी शासन के स्तर पर आई। ख़लीफ़ा, जो क़ौम के ख़ादिम होते थे, वो बादशाह बन बैठे। दीन मस्जिद-मदरसों तक सीमित हो गया और समाज में ग़ैरों के तरीक़े पनप गये।
हमारे देश में जब मुसलमान हाकिम बने तो उनके दौर में इस्लामी आदर्श पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाए। मुस्लिम सल्तनत के शुरूआती दौर में शासन-तंत्र से लेकर सामाजिक स्तर तक दीनदारी काफ़ी हद तक मौजूद थी।
जातिवाद में जकड़े हिंदू समाज को इस्लाम की अच्छाइयों ने आकर्षित किया। समानता, न्याय और बराबरी की चाह में हिंदू समाज के लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया लेकिन उनका तज़किया न होने के कारण वे अपने पुराने तौर-तरीक़े और रस्मो-रिवाज नहीं छोड़ पाये।
हमारे मदरसों में उस वक़्त क़ुरआन, हदीस (हिकमत), कारोबार, शासन व्यवस्था संबंधी बातें तो पढ़ाई जाती थीं लेकिन लोगों के मन में फैली बुराइयों और अंधविश्वासों को दूर करने और लोगों का तज़किया करने की सुचारू व्यवस्था नहीं थी। नतीजा यह हुआ कि हिंदू समाज में फैले, कर्म आधारित जातिवाद ने मुस्लिम समाज में भी अपनी जड़ें जमा ली। जिस जातिवाद, नस्लवाद और असबियत को मिटाने का काम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने किया था, वही जातिवाद मुस्लिम समाज का हिस्सा बन गया।
मुग़लिया दौर में शासन के स्तर पर भी जातिवाद को मान्यता दे दी गई। मुग़ल सम्राट अकबर ने अपने बेटे सलीम की शादी चित्तौड़गढ़ की हिंदू राजकुमारी से करना मंज़ूर कर लिया लेकिन एक अफ़ग़ान सिपहसालार की बेटी नूरजहाँ को अपने घर की बहू बनाना क़ुबूल नहीं किया। नूरजहाँ की शादी एक अफ़ग़ान सिपाही से कराकर उसे दिल्ली से बहुत दूर भेज दिया गया। ये अलग बात है कि अकबर की मौत के बाद, जब शहज़ादा सलीम, जहाँगीर की उपाधि धारण करके सम्राट बना तो उसने नूरजहाँ से शादी कर ली जो उस समय विधवा हो चुकी थीं।
मुस्लिम समाज में फैल चुकी जातिवादी सोच में धीरे-धीरे ऊंच-नीच की भावना भी जुड़ गई। किसी जाति को "अशरफ़ (श्रेष्ठ)", किसी जाति को "अज़लफ (पिछड़ी)" तो किसी जाति को "अरज़ल (नीच या दलित)" क़रार दे दिया गया। इस्लाम ने किसी भी काम को छोटा या हक़ीर नहीं कहा, इस्लामी शरीअत ने काम के आधार पर जातियों के नाम रखना तक क़ुबूल नहीं किया लेकिन भारतीय मुसलमान, ग़ैर-मुस्लिमों की देखा-देखी करते हुए इस शैतानी जाल में फंस गये।
हमारे कुछ आलिमों ने अपनी किताबों में लिखा कि सय्यद की बेटी ग़ैर-सय्यद में गई तो कहा जाएगा कि रिश्ता घटकर हुआ। ऐसी और भी कई बातें उलमा और दानिशवरों के स्तर पर कही गईं, जिनके बारे में हम अलग से एक आर्टिकल लिखेंगे, इन् शा अल्लाह!
अँग्रेज़ी हुकूमत के दौरान सरकारी स्तर पर मुस्लिम समाज में जातिवाद की खाई को और चौड़ा करने की कोशिश की गई ताकि मुस्लिम समाज की एकता और एकजुटता ख़त्म हो सके। हमारी यानी मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदारी है कि हम इन चालों और साज़िशों को नाकाम करें। इसलिये ज़रूरत है मुकम्मल सामाजिक बदलाव अभियान (Complete Social Reform Campaign) की।
12 रबी-उल-अव्वल 1444 हिजरी (18-19 अक्टूबर 2021) को हमने एक आर्टिकल 12 रबी-उल-अव्वल : इस्लामी समाज स्थापना दिवस में इस सम्बंध में थोड़ी चर्चा की थी। काफ़ी लोगों ने हमारी सोच का समर्थन किया है और साथ जुड़ने की इच्छा जताई है। अगर आप भी आदर्श मुस्लिम समाज के निर्माण में सहयोगी बनना चाहते हैं तो हमारे व्हाट्सएप नम्बर 9829346786 पर मैसेज करें। इन् शा अल्लाह, बहुत जल्द हम मुस्लिम समाज के उत्थान के लिये विस्तृत कार्ययोजना पेश करेंगे।
सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़
आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क, जोधपुर राजस्थान
यह लेख भी पढ़ें :
★ 12 रबी-उल-अव्वल : इस्लामी समाज स्थापना दिवस
★ 02. बेटी बचाओ-जातिवादी सोच मिटाओ
★ 01. बेटी बचाओ-बेटा पढ़ाओ
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