01. बेटी बचाओ-बेटा पढ़ाओ
सोशल मीडिया पर कुछ महीनों से मुस्लिम लड़कियों के ग़ैर-मुस्लिम लड़कों के साथ शादी करने की ख़बरें वायरल हो रही है। ज़्यादातर मुसलमान सदमा कर रहे हैं, अफ़सोस जता रहे हैं, लेकिन माफ़ कीजिएगा जो काम उन्हें करना चाहिये वो नहीं कर रहे हैं।
सबसे पहले हमें इसकी वजहों पर ग़ौर करना चाहिये कि लड़कियां ऐसा क़दम क्यों उठा रही हैं? इसकी पहली वजह है, तालीम में ग़ैर-बराबरी। इस लेखमाला की पहली किस्त में हम इसी मुद्दे पर चर्चा करेंगे।
अकबर इलाहाबादी ने बरसों पहले मुस्लिम समाज की कम पढ़ी-लिखी औरतों के बारे में कहा था,
यहाँ की औरतों को तालीम की बेशक नहीं परवाह,
मगर ये शौहरों से अपने बेपरवाह नहीं होतीं।
एक समय था जब दुनियावी तालीम में कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ मुस्लिम औरतें दीनी तालीमयाफ्ता ज़रूर होती थीं। वे घर-परिवार को संभालने के हुनर में माहिर होती थीं। समय बदला, मुस्लिम लड़कियां दुनियावी तालीम हासिल करने में तेज़ी से आगे बढ़ीं और दीनी तालीम व सामाजिक संस्कार उनसे कोसों पीछे छूट गये।
लड़कों के आधुनिक शिक्षा से मोहभंग की एक वजह महंगी पढ़ाई भी है जबकि देश के ज़्यादातर राज्यों में लड़कियों की स्कूली एजुकेशन मुफ़्त है। 25-30 साल की उम्र तक एजुकेशन इंडस्ट्री (इसमें स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी सभी शामिल हैं) को पैसा भरने के बजाय लड़के पैसा कमाने को तरजीह देते हैं।
आज के दौर में मुस्लिम लड़के पढ़ने-लिखने में इसी वजह से पिछड़ रहे हैं और लड़कियां पढ़ाई में आगे बढ़ रही हैं। आम तौर पर लड़कियों पर घर का ख़र्च चलाने की ज़िम्मेदारी नहीं होती और न ही माँ-बाप उनसे ऐसी उम्मीद रखते हैं। जबकि क़रीब-क़रीब हर मुस्लिम घर में बालिग़ लड़के से यह उम्मीद की जाती है कि वो कमाकर लाए और घर की ज़रूरतों को पूरा करने में अपने पिता की मदद करे। यही वजह है कि ज़्यादातर मुस्लिम लड़के नौकरी मिलने की अनिश्चितता को देखते हुए अपनी पढ़ाई ड्रॉप करके काम-धंधे में ख़ुद को झौंक देते हैं। इस दिशा में शायद बहुत कम लोगों का ध्यान गया है।
जब एजुकेशन इंडस्ट्री के सेठ लोग, फ़ीस माँगने में गुंडागर्दी दिखाते हैं, बच्चों को टॉर्चर करते हैं, पेरेंट्स को बुलवाकर बच्चों के सामने ज़लील करते हैं, फ़ीस जमा न करवाने पर बच्चों को क्लास से बाहर खड़ा करते हैं, उन्हें एग्ज़ाम में बैठाने से इंकार करते हैं तो इन बातों की वजह से लड़कों की ख़ुद्दारी और ग़ैरत को ठेस लगती है।
ज़्यादातर लड़के, अपने माँ-बाप को एजुकेशन इंडस्ट्री की किस्तें चुकाने और स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी के स्टाफ़ आगे हाथ जोड़ने पर मजबूर करने के बजाय छोटा-मोटा काम करके अपने परिवार का सहारा बनने को प्राथमिकता देते हैं।
हमारे समाज की एक सच्चाई यह भी है कि सदियों से पढ़े-लिखे लड़के, अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी लड़कियों से शादी करके निबाह करते आये हैं लेकिन पढ़ी-लिखी लड़कियां अपने से कम पढ़े लड़के से शादी करने पर आसानी से आमादा नहीं होती। कई मामलों में देखा गया है पढ़ी-लिखी लड़कियों के पैरेंट्स, कम पढ़े लड़कों के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करने पर रज़ामंद नहीं होते।
इस समस्या का समाधान यह है कि लड़कियां और उनके पैरेंट्स अपनी मानसिकता बदलें। शादी के लिये रिश्ता तलाशने के दौरान लड़के की सिर्फ़ एजुकेशन नहीं देखें बल्कि उसका अख़लाक़ देखें। अपनी बेटियों को पढ़ाने के साथ-साथ सामाजिक सरोकार भी सिखाएं।
इसके साथ ही लड़कों को भी चाहिये कि अगर उनकी स्कूली एजुकेशन पूरी नहीं हो सकी हो तो NIOS के ज़रिए 10वीं-12वीं पास करें। सेशनल मार्क्स का लालच छोड़ दें क्योंकि इन्हें हासिल करने के लिये महंगी फीस चुकानी पड़ती है। ओपन यूनिवर्सिटी के ज़रिए काम-धंधे और मज़दूरी करने के साथ-साथ डिग्री कोर्स करने का भी विकल्प मौजूद है। लड़कों को इसलिये पढ़ना चाहिये ताकि उनका पढ़ी-लिखी बीवी के साथ "इगो क्लैश" न हो।
हमारा मानना है कि ओपन स्कूल और ओपन यूनिवर्सिटी एजुकेशन सिस्टम को ज़्यादा से ज़्यादा अपनाकर शिक्षा उद्योग के सेठों की कमर तोड़ी जा सकती है। हो सकता है बहुत से लोग हमारी इस बात से सहमत नहीं हों लेकिन हमें यक़ीन है कि यह ज़्यादातर लोगों के मन की बात है, जिसे वो बैकवर्ड कहलाने के डर से कह नहीं पाते।
इस पोस्ट पर आपकी क्या राय है, हमें कमेंट करके ज़रूर बताएं।
सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़
आदर्श मुस्लिम व आदर्श मीडिया नेटवर्क
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