ये लॉकडाउन कहीं जिंदगी को न कर दे लॉक

"मध्यमवर्गीय परिवारों" की पीड़ा को पेश करता हुआ यह आर्टिकल जनाब माजिद शैख़ ने लिखा है। आप इंदौर (मध्यप्रदेश) में एक प्राइवेट स्कूल में प्रिंसिपल हैं। इसे पूरा पढ़ें और ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करें। (एडिटर इन चीफ़)
कोरोना कोविड-19, एक दहशत बन गया है। लोगों की जान जोखिम में है, यह दूसरी लहर के बाद तय हो गया है। चिकित्सा पद्धति लाचार हैं और सरकारें बेबस। सरकार को सिर्फ़ एक ही उपाय सूझ रहा है, कल-कारखाने, दुकानों -मकान, बाजार-चौराहे, कारोबार, स्कूल-कॉलेज सब को बंद कर दिया जाए यानी टोटल लॉकडाउन। क्या यही एकमात्र चारा बचा है आज की आधुनिक एवं सर्वगुण संपन्न मानने वाली 21वीं सदी की दुनिया के पास?

अमीरों के घरों में जिम हैं, खेलकूद के स्थान हैं, सुख-सुविधाओं के साधन हैं। उनका कारोबार ऑनलाइन चल रहा है। उनका इन्वेस्टमेंट, "पैसा, पैसे को खींचता है" की कहावत को चरितार्थ कर रहा है।
ग़रीब का क्या, आज भी दोनों हाथों से वो वैसे ही मांग रहा है जैसे उसने पहले माँगते हुए अपना सारा जीवन गुज़ारा है। ग़रीबों की मदद करना नेकी समझा जाता है इसलिये साधन-संपन्न लोग इन ग़रीबों की मदद को आज भी मुस्तैद खड़े हैं, डटे हुए हैं।
अमीर और ग़रीब, इन दोनों के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो इस लॉकडाउन को अपने जीवन में रुला देने वाली दु:खद घटना मान कर कोस रहा है, वह है भारत का "मध्यमवर्गीय जनसमुदाय" जिसके पास न तो अमीरों की तरह सभी सुख-सुविधाएं हैं और न ही वह ग़रीबों की तरह किसी के सामने हाथ फैला कर मदद की भीख मांग सकता है। उसकी ग़ैरत उसे इजाज़त नहीं देता।

कोई हालचाल पूछे तो दर्द सीने में छुपाकर कहता है, ठीक हूँ। घर के कोने में दुबक कर, मायूस बैठा इस परिवार का मुखिया चिंतित है कि बाहर निकलता हूँ तो "कोरोना" का डर है, जो जान लेने के लिये बेक़रार है। कमाने न जाऊं तो घर के भीतर चार से छह सदस्यों की जिम्मेदारी और भविष्य को लेकर चिंता की रस्साकशी है। कामकाज बन्द है और आवक पूरी तरह से ठप्प है। ये हालात शायद पल-पल उसे झकझोर रहे हैं, डरा रहे हैं, मायूस कर रहे हैं। दबी और डरी ज़ुबान में कहूं तो ये हालात उसकी जान लेने से कम मुश्किल नही लग रहे हैं।
इस मध्यमवर्गीय समुदाय में वो व्यक्ति भी शामिल है जो किसी दुकान पर या संस्थान पर 8 से 10 हजार पगार पाता है। वो छोटा दुकानदार भी है जो 10-12 घंटे की ड्यूटी निभाकर अपने बीवी-बच्चों के साथ जिंदगी की कठिनाइयों पर जीत के सपने संजोता है। उसे बच्चों की पढ़ाई की फ़ीस अदा करनी है, होम लोन की ईएमआई का इंतज़ाम भी करना है। बड़े होते हुए बच्चों की सम्मानजनक शादी के बचत भी करनी है। बिटिया की शादी और दहेज की चिंता उसे आज ही से है इसीलिए वह घर संसार चलाने की जुगत में ज़िंदगी से लगातार जंग लड़ता रहता है।
इस मध्यमवर्गीय परिवार का मुखिया, हर दिन काम पर जाता है, इसलिये जाता है क्योंकि पहले से उसका तय "मासिक बजट" उसे छुट्टी लेने की इजाज़त नहीं देता। जो किराये के मकान में रहता है, उसकी हालत तो और भी बुरी है। ज़िंदगी गुज़ारने के लिये सर पर छत ज़रूरी है और किराया अदा न करने की सूरत में सर से छत छिन जाने का रिस्क भी उसे खाये जाता है।

आज का समाज ऐसे दौर में पहुंच चुका है जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और रोटी के साथ कई अन्य ज़रूरतें पूरी करने के लिये एक मध्यमवर्गीय परिवार कभी कर्ज़ लेता है, कभी गहने या घर गिरवी रखता है, तो कभी किसी सेठ या मालिक की मान-मनोव्वल करता नज़र आता है। कई बार तो यह भी देखा गया है अत्यंत निराश होकर वह मौत को अपनाने की तरफ भी बढ़ जाता है।
ग़रीबों की चिंता में हरेक सरकार ने कई योजनाएं बनाई। अमीरों की आय दिन-ब-दिन दोहरी रफ्तार से बढ़ी है। इन दोनों के बीच गुमनाम और अनजान बन गया है 'मध्यमवर्गीय परिवार' जिसके लिये सरकारों के पास न कोई ठोस योजना है, न कोई सहारा है, न वो किसी से मांग सकता है और ना वो किसी से लड़ सकता है। इन सरकारों को, जज़्बाती नारों बहकर, इसी मध्यमवर्गीय वर्ग ने चुना है और वही इनकी बेरुख़ी की सज़ा भी भुगत रहा है।

सरकारी आदेश से दुकानें बंद है, कल- कारखाने बंद है, दफ्तर बंद है, निजी शिक्षण संस्थान भी बंद है, सब कुछ बन्द है लेकिन लगातार अगर कुछ चाल रहा है तो वो है, खर्चों का मीटर। ये लॉकडाउन की मुश्किलतरीन घड़ियां और बंदिशें उसे घर में रखकर "कोरोना" से बचा तो रही है, लेकिन घर ख़र्च चलाने की कंपकपाहट और भविष्य की पूर्ति की चिंता उसे अनजाने में मौत की तरफ जैसे आहिस्ता-आहिस्ता खींच रही है। लगभग 3 महीने के लॉकडाउन से पूरा मासिक, वार्षिक और कहें कि भविष्य का बजट ही गड़बड़ा गया है। इस "मध्यमवर्गीय परिवार" के लिए 3 महीने डरावनी हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी है। *इस बात का भी डर है कि लॉकडाउन की
ये लम्बी अवधि कहीं उसकी व उसके पूरे परिवार की जिंदगी को ही "लॉक" न कर दे।*
अंत में, मैं शासन -प्रशासन से, सेठ-साहूकारों से, मकान मालिको से, स्कूल प्रबंधन से, बैंक संचालकों और समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह विनती करना चाहूंगा कि वे आगे आए, मध्यमवर्गीय समाज के दर्द को समझें। संकट के इस दौर में, समाज के इस बड़े और असहाय तबके की मदद के लिए भी कुछ ठोस कदम उठाएं। यह वह खुद्दार वर्ग है जो मर तो सकता है लेकिन शर्म-हया के चलते किसी के सामने हाथ फैला नहीं सकता।

लॉक डाउन पीरियड के बिजली के बिल सरकार माफ़ करे। दुकान-मकान के किराये माफ़ किये जाएं या हाफ (आधे) किये जाएं। कर्ज़ चुकाने के लिये मोहलत मोहलत दी जाए। बच्चों की स्कूल फीस माफ़ की जाए या उसमें 50 फ़ीसद कटौती की जाए। निजी दुकानों, प्रतिष्ठानों, कल-कारखानों और प्राइवेट स्कूलों में कार्यरत जो कर्मचारी हैं उन्हें उन्हें समय पर वेतन मिले, इसका इंतज़ाम किया जाए। संजीदगी से अगर सोचें तो शायद इनकी और इनके परिवार की जिंदगी बचाने की यह बड़ी मुहिम होगी।
यह आर्टिकल सरकार व साधन-संपन्न वर्ग के नाम एक अपील है। समस्याओं से जूझ रहे मध्यम वर्ग की ओर मदद का हाथ बढ़ाइये, ये वर्ग आपकी पहल के इंतज़ार में है।
एडिटर्स नोट : उम्मीद है कि माजिद शैख़ साहब के इस आर्टिकल ने आपके ज़हन व दिमाग़ को झकझोरने का काम किया होगा। हो सकता है कि आप भी इसी दौर से गुज़र रहे हों। ऐसे हालात में आपसी सहयोग का एक नेटवर्क बनाइये। इस आर्टिकल को ज़्यादा से ज़्यादा शेयर कीजिये ताकि सरकार व समाज के समर्थ लोगों तक यह पैग़ाम पहुँचे।
वस्सलाम,
सलीम ख़िलजी
(एडिटर इन चीफ़, आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क)
जोधपुर राजस्थान। व्हाट्सएप/टेलीग्राम : 9829346786
Leave a comment.