न्यू वर्ल्ड ऑर्डर-06 : सन 1857 क्रांति से पहले का भारत

इस सीरीज़ में अब तक आप पढ़ चुके हैं कि मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब (रह.) के शासनकाल (सन 1707) तक अंग्रेज़ों की भारत पर क़ब्ज़ा करने की मजाल नहीं हुई। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला (1757) और टीपू सुल्तान (1799) की मौत के बाद पूरे भारत में अंग्रेज़ों का सामना कर सकने वाला कोई नहीं था। धीरे-धीरे अंग्रेज़ों ने सभी रियासतों पर रिमोट कंट्रोल क़ब्ज़ा कर लिया।

मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र

सन 1850 आते-आते हालत यह हो चुकी थी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की बादशाहत सिर्फ़ लाल किले के आसपास यानी पुरानी दिल्ली तक महदूद होकर रह गई थी। बादशाह ज़फ़र को ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से पेंशन मिलती थी।

बहादुर शाह ज़फ़र, उर्दू के एक अच्छे शायर थे, उनकी लिखी दर्जनों ग़ज़लें उर्दू अदब (साहित्य) में मौजूद हैं। उर्दू के नामचीन शायर मिर्ज़ा ग़ालिब बादशाह के दरबारी थे। बादशाह ज़फ़र ने न सिर्फ़ ग़ालिब बल्कि नवाब मिर्ज़ा ख़ान 'दाग़', मोमिन ख़ान 'मोमिन', मोहम्मद इब्राहीम 'ज़ौक' जैसे उर्दू के बड़े शायरों को हर तरह से प्रोत्साहन दिया। बहादुर शाह ज़फ़र की मौत के बाद, उनकी शायरी "कुल्लियात-ए-ज़फ़र" के नाम से संकलित की गयी।

इतिहासकार कहते हैं कि बहादुर शाह ज़फ़र के दौर में उर्दू साहित्य को तो बुलंदी नसीब हुई लेकिन मुस्लिम हुकूमत ज़वाल (पतन) का शिकार हो गई।


न किसी की आँख का नूर हूँ. साभार फ़िल्म "लाल क़िला"

बादशाह के दरबार का एक मंज़र फ़िल्म लाल क़िला (1960) में देखने को मिलता है। भले ही यह एक फ़िल्म का सीन हो मगर ग़ज़ल तो बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की है। उनकी कई ग़ज़लों में मायूसी और हताशा साफ़ झलकती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि नई तकनीक से लैस एक क़ौम, अंग्रेज़ का मुक़ाबला साहित्य-प्रेमी बादशाह कैसे कर सकते थे?

लेकिन एक बात ज़रूर कहनी होगी कि बादशाह ज़फ़र, अपनी मातृभूमि भारत से बहुत मोहब्बत करते थे। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व करके उन्होंने अपना बुढ़ापा संवार लिया।

अवध के नवाब, वाजिद अली शाह

उस दौर में अवध के नवाब वाजिद अली शाह थे। एक नाकारा और नाअहल (अयोग्य) सुल्तान। एक ऐसा सुल्तान, जो ठुमरी लिखने और गाने को अपनी क़ाबिलियत समझता था। उसके चाटुकार दरबारी उसे जाने-आलम कहकर पुकारते थे। उनके सामने भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक मौक़ा आया था लेकिन उसे उन्होंने गंवा दिया।

नवाब वाजिद अली शाह के ख़राब प्रबंधन और कुशासन के कारण 7 फरवरी 1856 को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने रेज़िडेंट के ज़रिए नवाब साहब को लखनऊ छोड़ने को कहा। कम्पनी की सेना लखनऊ की सरहद पर खड़ी थी। गवैया नवाब क्या ख़ाक लड़ता, लड़ना तो बहुत दूर की बात, एक गोली भी न चली और नवाब वाजिद अली शाह 13 मार्च 1856 को अपनी माँ और दो बीवियों (जिनके नाम ख़ास महल और अख्तर महल थे) को साथ लेकर लखनऊ छोडकर कलकत्ता चले गये। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है, कोई क़िस्सा-कहानी नहीं है।

मुंशी प्रेमचंद के लिखे नॉविल शतरंज के खिलाड़ी पर मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे ने इसी टाइटल से एक फ़िल्म बनाई थी जिसमें नवाब वाजिद अली शाह का रोल मशहूर अभिनेता अमजद ख़ान ने अदा किया था। नवाब साहब की अवध की सत्ता से ज़िल्लतभरी विदाई का एक मंज़र, शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म की इस क्लिप के ज़रिए हम आपके सामने पेश कर रहे हैं।


फ़िल्म, "शतरंज के खिलाड़ी" की एक क्लिप, जिसमें वाजिद अली शाह की सत्ता से बेदख़ली को दिखाया गया है

नवाब वाजिद अली शाह, अपनी लिखी हुई एक ठुमरी बाबुल मोरा नय्यर छूटो जाए गाते हुए, शाही महल से बाहर निकले।

लेकिन उसके बाद भी अवध पर अंग्रेज़ क़ब्ज़ा न कर सके क्योंकि वाजिद अली शाह एक बीवी, बेगम हज़रत महल ने अपने 11 बरस के बेटे बिरजीस क़दर को अवध का नवाब घोषित कर दिया। उन्होंने अपने बेटे बिरजीस क़दर की ताजपोशी उसके पिता द्वारा बनाए महल केसरबाग की बारादरी में की।

बेगम हज़रत महल और नवाब बिरजीस क़दर

अँग्रेज़ों ने बेगम हज़रत महल आत्मसमर्पण करने के लिये कहा मगर उस औरत ने "मर्दाना तेवर" दिखाते हुए आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया और संघर्ष ज़ारी रखा। उन्होंने नये सिरे से सेना का गठन किया फिर अपने सहयोगियों की मदद से ब्रिटिश सेना के सामने युद्ध किया और लखनऊ को अपने अधीन कर लिया।

बेगम हज़रत महल के मददगारों में एक नाम फैज़ाबाद के मौलवी अहमद उल्लाह शाह का है। उन्होंने लोगों को उभारा जिसके नतीजे में अवध के मुसलमानों की सोई हुई ग़ैरत जागी।

1857 की क्रान्ति में जब अंग्रेजों ने सभी क्रांतिकारियों को शांत करके क्रान्ति को नाकाम कर दिया उसके बावजूद वे बेगम हज़रत महल से ख़ौफ़ज़दा थे। *उन्होंने बेगम हज़रत महल को पेंशन देने की पेशकश की लेकिन उस ख़ुद्दार औरत ने पेंशन लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने नवम्बर 1859 तक अंग्रेजों के साथ तात्या टोपे की तरह गुरिल्ला युद्ध

जारी रखा लेकिन वो अवध को वापस हासिल नहीं कर सकी। एक बहादुर की तरह ज़िन्दा रहीं और बहादुर की मौत मरीं।* इसके विपरीत नवाब वाजिद अली शाह की मौत 30 सितंबर 1887 में कलकत्ता में हुई। वो कायरता में जिये और वैसी ही मौत मरे।

आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मौजूद बेगम हज़रत महल पार्क उस वीरांगना की यादों को ज़िंदा रखे हुए है। पिछले साल नरेंद्र मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय की 9 से 12 तक की छात्राओं के लिये स्कॉलरशिप योजना को "बेगम हज़रत महल" का नाम दिया। इस वीरांगना पर मुस्लिम समाज को गर्व होना ही चाहिये।

अगली कड़ी में आप पढ़ेंगे सन 1857 की क्रांति होने और उसके नाकाम होने के कारणों के बारे में। हमें उम्मीद है कि अतीत के यह गुमनाम पन्ने पढ़कर आप संजीदगी से ग़ौर कर रहे होंगे। हम पूरी कोशिश करते हैं कि सही तथ्य आप तक पहुंचाएं, इसके लिये हम दर्जनों किताबें पढ़ते हैं। आपसे गुज़ारिश है कि अपने कम से कम 10 परिचितों को आदर्श मुस्लिम की इस पेशकश के लिंक पर्सनल में सेंड करें।

न्यू वर्ल्ड ऑर्डर सीरीज़ के पहले पब्लिश किये गये पार्ट्स को पढ़ने के लिये, नीचे दिये गये लिंक बटन पर क्लिक कीजिये।

मुस्लिम जगत

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सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़,
आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क
जोधपुर राजस्थान। व्हाट्सएप/टेलीग्राम : 9829346786

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Comments (8)
Salim khan

बेहतरीन पेशकश..आप न सिर्फ कौम के सोए हुए ज़ज़्बे को जगाने का काम कर रहे हैं बल्कि जिस तरह से मुस्लिमो की इस देश के जंग ए आज़ादी में जो योगदान है उसे गलत ओर कमतर बता रहे लोगो को मुँह तोड़ जवाब भी दे रहे हो...शुक्रिया

Mon 31, May 2021 · 03:02 pm · Reply
Dilshad

Hiii

Sun 30, May 2021 · 09:33 pm · Reply
M R Khan

Logon me Allaah Shauq Paida Kare ke woh Aapki Kavishon ko Sanjeedgee se Len.

Sun 30, May 2021 · 09:23 am · Reply
Mohammad Rafiq sardharia

अनुकरणीय कार्य,बहुत ही अच्छी जानकारी दे रहे हैं,इतिहास की सलीम साहब आप!! काबिले तारीफ !!

Sat 29, May 2021 · 11:34 pm · Reply
Nasir shaikh

Allah aapko aapki is mehnat ka pura pura fida jaroor ata kare bhai ameen

Sat 29, May 2021 · 09:24 pm · Reply
Saleem Khilji · Editor-in-Chief

Anwar Khan
इतिहास हमें सीखने की सीख देता है परन्तु हमने इतिहास से क्या सीखा। कौम में युवा पीढ़ी अपने लेखन कार्यदक्षता को निखार रही है परन्तु इस युवा पीढ़ी को यदि एक साथ एक मंच पर संगठित कर एक बड़ा मीडिया नेटवर्क तैयार कर लिया जाये तो युवाओं को रोजगार के अवसरों के साथ एक दूसरे के सम्पर्क का समूह तैयार हो जायेगा।आज देश के किसी भी कोने में लिन्चिंग जैसी अनेकों घटनाएं हो रही है परन्तु मीडिया संस्थान इन्हें प्रमुखता नहीं देते हैं।नाही समाज के बुनियादी मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है।

इन् शा अल्लाह, इस दिशा में भी कोशिश करेंगे।

Sat 29, May 2021 · 08:58 pm · Reply
Anwar Khan

इतिहास हमें सीखने की सीख देता है परन्तु हमने इतिहास से क्या सीखा। कौम में युवा पीढ़ी अपने लेखन कार्यदक्षता को निखार रही है परन्तु इस युवा पीढ़ी को यदि एक साथ एक मंच पर संगठित कर एक बड़ा मीडिया नेटवर्क तैयार कर लिया जाये तो युवाओं को रोजगार के अवसरों के साथ एक दूसरे के सम्पर्क का समूह तैयार हो जायेगा।आज देश के किसी भी कोने में लिन्चिंग जैसी अनेकों घटनाएं हो रही है परन्तु मीडिया संस्थान इन्हें प्रमुखता नहीं देते हैं।नाही समाज के बुनियादी मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है।

Sat 29, May 2021 · 08:41 pm · Reply
Abdullah Aamir

Dusre pehlu ki sacchai ujagar karta lekh. Sabooton ke saath.. Behtreen jankari ...

Sat 29, May 2021 · 08:30 pm · Reply