न्यू वर्ल्ड ऑर्डर-04 : मुसलमानों से हुकूमत छिनने के कारण
दिल्ली के कुतुब मीनार के पास, अलाउद्दीन ख़िलजी मदरसा, जिसे 14वीं शताब्दी में बनाया गया
सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने महरौली (दिल्ली) में क़ुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनाई, अज़ान की आवाज़ दूर-दूर तक जाए इसलिये क़ुतुब मीनार बनाई। सुल्तान शमशुद्दीन अल्तमश पंजगाना नमाज़ के साथ-साथ तहज्जुद की नमाज़ के पाबंद थे। सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने क़ुतुब मीनार के पास एक मदरसा बनवाया था, जहाँ दीनी तालीम के साथ अन्य तालीम भी दी जाती थी। सम्राट जहांगीर का इंसाफ़ अदले-जहांगीर के नाम से मशहूर है। शाहजहां भी नमाज़ी थे। औरंगज़ेब (रह.) ने किस तरह एक सेवक की तरह देश पर हुकूमत की उसे आप इस आर्टिकल में पढ़ेंगे। साथ ही हम आपको उनके बाद वाले बादशाहों-नवाबों के काले कारनामे बताएंगे जिनकी वजह से उनसे हुकूमत छीन ली गई।
मुग़ल हो या कोई और नवाब या सुल्तान; जब वे तख़्त पर गद्दीनशीन होते तो जुमे की नमाज़ से पहले ख़ुत्बे में अपना नाम पढ़वाते थे। अपने नाम के सिक्के ढलवाते थे। लेकिन औरंगज़ेब (रह.) ने ये दोनों ही काम नहीं किये। 21 जुलाई 1658 को जब वो गद्दीनशीन हुए, तब न तो सिक्के गढ़वाए और न ही अपने नाम का ख़ुतबा पढ़वाया। बस एक अदना सा जलसा करवाया और कार्यभार संभाल लिया।
मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब (रह.)
औरंगज़ेब (रह.) ने सरकारी खज़ाने को कभी हाथ नहीं लगाया। अपना खर्च ख़ुद उठाया। न इतिहास लिखवाया, न मकबरे बनवाए। शादी-ब्याहों के जलसे बंद करवाए और शराब और भांग पर पाबंदी लगाई। इसके बाद भी उन्हें विलन के रूप में पेश किया जाता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
एक अंग्रेज़ लेखक एलेक्स रदरफ़ोर्ड ने औरंगज़ेब के जीवन पर लिखे उपन्यास ‘ट्रेटर्स इन द शैडोज’ में लिखा है कि उनके प्रशासन में जितने हिंदू थे उतने अकबर के काल में भी नहीं थे। कुछ मुसलमान दरबारियों को इस बात से एतराज किया तो उन्होंने कहा, ‘प्रशासन में मज़हब का कोई मतलब नहीं होता, जो क़ाबिल है वही पद पर रहेगा।’
हिंदुस्तान के इस अज़ीम बादशाह की मौत के वक़्त की एक झलक पर नज़र डालिये। जुमे का दिन था और तारीख़ थी, 20 फ़रवरी 1707, इस दिन हिंदुस्तान का यह "दुर्वेश बादशाह" को औरंगज़ेब (रह.) अपने रब से जा मिला। उस वक़्त उनके पास पांच रुपये थे जो उन्होंने टोपियां सिलकर कमाए थे। मरने से पहले उन्होंने वसीयत की थी कि इसी रकम (5 रुपये) को कफ़न-दफ़न में ख़र्च किया जाए। इस लिहाज से देखा जाये तो वह बादशाह नहीं दुर्वेश (फ़क़ीर) थे।
औरंगज़ेब (रह.) की मौत के बाद, उनके वारिसों ने सरकारी ख़ज़ाने को बेदर्दी से बर्बाद किया। शेरो-शायरी की मजलिसें, तवायफों के मुजरे की महफ़िलें रोज़ाना सजने लगीं। अय्याशियों ने उन्हें इतना कमज़ोर कर दिया कि वे अंग्रेज़ों के पेंशनर सुल्तान बन गये। उस दौर में दिल्ली में मुनादी होती थी, “ख़ल्क़ ख़ुदा की, मुल्क बादशाह सलामत का और हुक्म कंपनी बहादुर का।”
उधर अवध रियासत की राजधानी लखनऊ से यह आवाज़ सुनाई देती थी, “जिसको न दे मौला, उसको दे आसफुद्दौला।” ये सुल्तान, नवाब और बादशाह, सबके सब जैसे अल्लाह के अज़ाब को आवाज़ दे रहे थे। अल्लाह का अज़ाब आया और उनसे सल्तनत छीन ली गई।
■ अवध रियासत के नवाबों के कारनामे
नवाब शुजाउद्दौला
अवध की रियासत बहुत बड़ी थी, इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वर्तमान लखनऊ, सुल्तानपुर, रायबरेली, उन्नाव, कानपुर, भदोही, इलाहाबाद (प्रयागराज), बाराबंकी, अयोध्या, अम्बेडकर नगर, प्रतापगढ़ , बहराइच, बलरामपुर, गोंडा, हरदोई, लखीमपुर खीरी, कौशाम्बी, सीतापुर, श्रावस्ती उन्नाव, फतेहपुर, कानपुर, जौनपुर और मिर्जापुर के पश्चिमी हिस्से, कन्नौज, पीलीभीत, शाहजहांपुर शामिल थे। इस अवध रियासत की प्राचीन काल में राजधानी "अयोध्या-फैज़ाबाद" थीं।
बदकारी (व्यभिचार) को इस्लाम ने गुनाहे कबीरा (महापाप) कहा है, मगर नवाब तो इसे भूल चुके थे। अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने एक बार एक हिंदू खत्री लड़की को रात भर के लिये उठवा लिया। बस फिर क्या था, शहर में कोहराम मच गया। हिंदू रियाया ने लड़की को छोड़ने की मांग की। शुजाउद्दौला के ख़िलाफ़ बग़ावत के सुर उठने लग गये। शुजाउद्दौला की माँ सद्र-ए-जहान बेगम ने लोगों की मान-मनौव्वल की। महंगे तोहफ़े और ऊंचे ओहदे देकर मामले को शांत किया।
उम्मत-उल-ज़ोहरा (बहू बेगम)
उम्मत-उल-ज़ोहरा उर्फ़ बहू बेगम, नवाब शुजाउद्दौला की बेगम थीं और आसफ़ुद्दौला की मां। वे बड़ी ज़हीन (समझदार) महिला थीं और फैज़ाबाद से लेकर लखनऊ तक उनका बड़ा मान था। रवि भट्ट की किताब ‘द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ नवाब्स ऑफ़ लखनऊ’ में ज़िक्र है कि बहू बेगम सबसे रईस बेगम थीं जिनके पास गोंडा, खारा, रुक्का, परसिद्धिपुर, मोहनगंज, सिमरौता आदि की जागीर थी. उनकी शोहरत ऐसी थी कि इन्हें फ़ैज़ाबाद का अघोषित नवाब कहा जाता था।
नवाब शुजाउद्दौला के बाद आसफ़ुद्दौला को नवाब बनाया गया। शुजाउद्दौला के मरने का मातम भी पूरा नहीं हुआ था कि आसफ़ुद्दौला अय्याशी करने मेहंदी घाट, कन्नौज चला गया। उसने अपने मंत्री को बहू बेग़म के पास भेजकर खर्च के लिए रुपये मांगे। बताया जाता है कि हैरतज़दा बेग़म ने उससे कहा, ‘आसफ़ुद्दौला के पास क्या बाप के मरने पर आंसू बहाने का वक़्त नहीं है?’ बहू बेग़म ने उसे छह लाख रु भिजवाये। ये ख़त्म हुए कि उसने और चार लाख की मांग रख दी।
बात यहीं तक नहीं रुकी। बाद में उसने अपनी माँ उम्मत-उल-ज़ोहरा (बहू बेगम) की संपत्ति हड़पने के लिए उन्हें नज़रबंद करवाकर उन पर ज़ुल्म करवाए। मज़बूरी में बहू बेग़म ने अपने नालायक बेटे, नवाब आसफ़ुद्दौला को 31 लाख रुपये, 70 हाथी, 860 बैलगाड़ियां और कई कीमती जवाहरात दिये।
नवाब आसफ़ुद्दौला
लखनऊ के नवाब बहादुरी के लिए तो नहीं, लेकिन अपनी तुनकमिज़ाजी और अय्याशी के लिए जरूर जाने जाते हैं। शुजाउद्दौला का बेटा नवाब आसफ़ुद्दौला भी अपने बाप से कुछ कम नहीं था। उसी ने अवध की राजधानी अयोध्या-फैज़ाबाद से हटाकर लखनऊ शिफ़्ट की। इसी दौर में बाबरी मस्जिद वीरानी का शिकार हुई क्योंकि राजधानी शिफ़्ट होते ही सारे अमीर-उमरा लखनऊ चले गये थे। कहा जाता है नवाब आसफ़ुद्दौला ने अपने बाप की बदनामी का दाग़ धोने के लिये उस वक़्त बहुत सारी जायदादों के पट्टे हिंदुओं के नाम कर दिये थे।
शुजाउद्दौला ने तवायफ़ संस्कृति की शुरुआत की थी। आसफ़ुद्दौला बाप से एक कदम आगे निकल गया। बड़ी मिसरी, सालारो, राम कली, हीराजान, जलालो और ख़ुर्शीद जान उसके समय की कुछ प्रमुख तवायफ़ें थीं जिनका दख़ल राजकाज में भी था। आसफ़ुद्दौला को शराब का इस हद तक शौक था कि उसने अपने मंत्री भी वही रख लिए जो शराब पीने में उसका साथ देते थे।
नवाब आसफ़ुद्दौला ने अपने बेटे वज़ीर अली को अंग्रेज़ गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की मौजूदगी में अपना वारिस घोषित किया था। वज़ीर अली की शादी में नवाब आसफ़ुद्दौला ने फ़िज़ूलख़र्ची के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये थे। उसके बाद तो शादी में ग़ैर-इस्लामी रस्में समाज का हिस्सा बन गईं।
इतिहासकार जॉन पेमब्ल अपनी किताब ‘द राज; द इंडियन म्यूटिनी एंड द किंगडम ऑफ़ अवध’ में लिखते हैं, ‘शादी की इस शान ओ शौक़त देखकर दिल्ली के मुग़ल भी शरमा जाते। बारात में लगभग 1200 सजे-धजे हाथी थे, जिनमें से लगभग 100 हाथियों पर चांदी के हौदे थे। जिस हाथी पर नवाब आसफ़ुद्दौला बैठा, वो जवाहरातों से सजा हुआ था। बारातियों के दोनों तरफ़ नाचने वालियां चल रही थीं। पूरे रास्ते में आतिशबाज़ी होती रही। ये ज़श्न पूरे तीन दिन चला। शादी में नवाब ने 36 लाख रुपये ख़र्च किये थे। ये अवध की सबसे महंगी शादियों में से एक कही जा सकती है।’
मुजरा करती तवायफ
जिस ज़माने में सोने-चाँदी के सिक्के चलते थे, उस ज़माने के 36 लाख रुपये आज के हिसाब से कई खरब रुपये होते हैं। उस वक़्त की मुस्लिम रियासत में शेरो-शायरी, तवायफों के कोठे, मुजरे, शतरंज का खेल, मुर्गों की लड़ाई जैसी चीज़ें पहचान बनकर रह गई थी।
नवाब आसफ़ुद्दौला को मुहर्रम के महीने में अज़ादारी के लिये सन 1784 में लखनऊ में बनाए गये इमामबाड़ा (सही नाम इमाम बारगाह) के लिये भी याद किया जाता है लेकिन उसकी अख़लाक़ी ख़राबियाँ इतनी ज़्यादा थीं कि उसने अल्लाह के अज़ाब को दावत दे दी थी।
इन् शा अल्लाह, अगली कड़ी में हम बताएंगे कि अंग्रेज़ों ने अपनी हुकूमत के दौरान क्या-क्या काम किये जिनकी वजह से न्यू वर्ल्ड ऑर्डर की नींव पड़ी।
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सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़,
आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क
जोधपुर राजस्थान। व्हाट्सएप/टेलीग्राम : 9829346786
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