1947 जामा मस्जिद दिल्ली : मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की तक़रीर के ख़ास पॉइंट्स
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद 11 नवंबर 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में पैदा हुए थे। वे आज़ादी से पहले कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे और आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। 22 फ़रवरी 1958 को वे इस दुनिया से रुखसत हो गये।
इस आर्टिकल में हम मौलाना आज़ाद की उस ऐतिहासिक तक़रीर के अहम हिस्से आपके सामने पेश कर रहे हैं जो उन्होंने जामा मस्जिद दिल्ली की सीढ़ियों पर खड़े होकर ख़ौफ़ज़दा मुसलमानों को नसीहत भरे अंदाज़ में की थी। इस आर्टिकल के साथ हम उस ऐतिहासिक तक़रीर को मौलाना आज़ाद की असली आवाज़ में पेश कर रहे हैं, जिसे आप दिये गये लिंक पर क्लिक करके सुन सकते हैं और इसकी मुख्य बातें पढ़ सकते हैं।
इस स्पीच को हर मुसलमान को पढ़ना चाहिए। ये स्पीच बताती है कि जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे, कुछ नहीं हो सकता। चाहे कितनी ही सच्चर रिपोर्टें आती रहें, नेता आते रहें, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तो पढ़िए और सोचिये।
■ मेरे अज़ीज़ो! आप जानते हैं कि वो कौन सी ज़ंजीर है जो मुझे यहां ले आई है? मेरे लिए शाहजहां की इस यादगार मस्जिद में ये इज्तमा नया नहीं। मैंने उस ज़माने में भी किया, अब बहुत सी गर्दिशें बीत चुकी हैं। मैंने जब तुम्हें ख़िताब किया था, उस वक़्त तुम्हारे चेहरों पर बेचैनी नहीं इत्मीनान था। तुम्हारे दिलों में शक के बजाए भरोसा था। आज जब तुम्हारे चेहरों की परेशानियां और दिलों की वीरानी देखता हूं तो भूली बिसरी कहानियां याद आ जाती हैं।
■ तुम्हें याद है? मैंने तुम्हें पुकारा और तुमने मेरी ज़बान काट ली। मैंने क़लम उठाया और तुमने मेरे हाथ कलम कर दिये (हाथ काट दिये)। मैंने चलना चाहा तो तुमने मेरे पांव काट दिये। मैंने करवट लेनी चाही तो तुमने मेरी कमर तोड़ दी।
हद ये कि पिछले सात साल में तल्ख़ सियासत जो तुम्हें दाग़-ए-जुदाई दे गई है. उसके अहद-ए शबाब (यौवनकाल, यानी शुरुआती दौर) में भी मैंने तुम्हें ख़तरे की हर घड़ी पर झिंझोड़ा था। लेकिन तुमने मेरी सदा (मदद के लिए पुकार) से न सिर्फ एतराज़ किया बल्कि गफ़लत और इंकार की सारी सुन्नतें ताज़ा कर दीं। नतीजा मालूम ये हुआ कि आज उन्हीं खतरों ने तुम्हें घेर लिया, जिनका अंदेशा तुम्हें सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सही रास्ते ) से दूर ले गया था।
■ सोचो तो सही तुमने कौन सी राह इख़्तियार की? कहां पहुंचे और अब कहां खड़े हो? क्या ये खौफ़ की ज़िंदगी नहीं? और क्या तुम्हारे भरोसे में फर्क नहीं आ गया है? ये खौफ तुमने खुद ही पैदा किया है?
■ अभी कुछ ज़्यादा वक़्त नहीं बीता, जब मैंने तुम्हें कहा था कि दो क़ौमों का नज़रिया (Two Nation Theory) मर्ज़े मौत का दर्जा रखता है, इसको छोड़ दो। जिनपर आपने भरोसा किया, वो भरोसा बहुत तेज़ी से टूट रहा है। लेकिन तुमने सुनी की अनसुनी सब बराबर कर दी। और ये न सोचा कि वक़्त और उसकी रफ़्तार तुम्हारे लिए अपना वजूद नहीं बदल सकते।
वक़्त की रफ़्तार थमी नहीं। तुम देख रहे हो जिन सहारों पर तुम्हारा भरोसा था, वो तुम्हें लावारिस समझकर तक़दीर के हवाले कर गये हैं। वो तक़दीर जो तुम्हारी दिमागी मंशा से जुदा है।
■ अंग्रेज़ों की बिसात तुम्हारी ख्वाहिशों के ख़िलाफ़ उलट दी गई और रहनुमाई के वो बुत जो तुमने खड़े किए थे, वो भी दगा दे गये। हालांकि तुमने सोचा था ये बिछाई गई बिसात हमेशा के लिए है और उन्हीं बुतों की पूजा में तुम्हारी ज़िंदगी है। मैं तुम्हारे ज़ख्मों को कुरेदना नहीं चाहता और तुम्हारे इज़्तिराब (बेचैनी) में मज़ीद इज़ाफा (बढ़ोतरी) करना मेरी ख्वाहिश नहीं है। लेकिन अगर कुछ दूर माज़ी (अतीत) की तरफ पलट जाओ तो तुम्हारे लिए बहुत से गिरहें खुल सकती हैं।
■ मेरे भाई मैंने हमेशा खुद को सियासत की ज्यादतियों से अलग रखने की कोशिश की है। कभी इस तरफ कदम भी नहीं उठाया क्योंकि मेरी बातें पसंद नहीं आतीं। लेकिन आज मुझे जो कहना है उसे बेरोक होकर कहना चाहता हूं। हिंदुस्तान का बंटवारा बुनियादी तौर पर ग़लत था। मज़हबी इख्तिलाफ़ को जिस तरह से हवा दी गई उसका नतीजा और आसार ये ही थे जो हमने अपनी आंखों से देखे और बदकिस्मती से कई जगह पर आज भी देख रहे हैं।
■ मुसलमानों पर जो मुसीबतों का रैला आया है वो यक़ीनन मुस्लिम लीग की ग़लत क़यादत का नतीजा है। ये सब कुछ मुस्लिम लीग के लिए हैरत की बात हो सकती है, मेरे लिए इसमें कुछ नई बात नहीं है। मुझे पहले से ही इस नतीजे का अंदाजा था।
अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है। मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है। अब ये हमारे दिमाग़ों पर है कि हम अच्छे अंदाज़-ए-फ़िक्र में सोच भी सकते हैं या नहीं? इसी ख़याल से मैंने नवंबर के दूसरे हफ्ते में हिंदुस्तान के मुसलमान रहनुमाओं को देहली में बुलाने का न्योता दिया है। मैं तुमको यकीन दिलाता हूं कि हमको हमारे सिवा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता।
■ मैंने तुम्हें हमेशा कहा और आज फिर कहता हूं कि नफरत का रास्ता छोड़ दो, शक से हाथ उठा लो और बदअमली को तर्क कर दो (त्याग दो)। ये तीन धार का अनोखा खंजर लोहे की उस दोधारी तलवार से तेज़ है, जिसके घाव की कहानियां मैंने तुम्हारे नौजवानों की ज़बानी सुनी हैं। ये फरार की जिंदगी, जो तुमने हिजरत के नाम पर इख़्तियार की है, उस पर ग़ौर करो, तुम्हें महसूस होगा कि ये ग़लत है।
■ अपने दिलों को मज़बूत बनाओ और अपने दिमागों में सोचने की आदत डालो और फिर देखो ये तुम्हारे फैसले कितने फायदेमंद हैं? आखिर कहां जा रहे हो? और क्यों जा रहे हो? ये देखो मस्जिद की मीनारें तुमसे उचक कर सवाल कर रही हैं कि तुमने अपनी तारीख के सफ़हात को कहां गुम कर दिया है? अभी कल की बात है कि यही जमुना के किनारे तुम्हारे काफ़िलों ने वज़ू किया था और आज तुम हो कि तुम्हें यहां रहते हुए खौफ़ महसूस होता है, हालांकि देल्ही तुम्हारे खून की सींची हुई है।
■ अज़ीज़ों! अपने अंदर एक बुनियादी तब्दीली पैदा करो। जिस तरह आज से कुछ अरसे पहले तुम्हारे जोश-ओ-ख़रोश बेजा थे, उसी तरह से आज ये तुम्हारा खौफ़ बेजा है। मुसलमान और बुज़दिली या मुसलमान और इश्तआल (भड़काने की प्रक्रिया) एक जगह जमा नहीं हो सकते। सच्चे मुसलमान को कोई ताक़त हिला नहीं सकती है और न कोई खौफ़ डरा सकता है।
चंद इंसानी चेहरों के गायब हो जाने से डरो नहीं। उन्होंने तुम्हें जाने के लिए ही इकट्ठा किया था आज उन्होंने तुम्हारे हाथ में से अपना हाथ खींच लिया है तो ये ताज्जुब की बात नहीं है। ये देखो तुम्हारे दिल तो उनके साथ रुखसत नहीं हो गये। अगर अभी तक दिल तुम्हारे पास हैं तो उनको अपने उस ख़ुदा की जलवागाह बनाओ।
■ अज़ीज़ों, तब्दीलियों के साथ चलो। ये न कहो इसके लिए तैयार नहीं थे, बल्कि तैयार हो जाओ। सितारे टूट गए, लेकिन सूरज तो चमक रहा है, उससे किरण मांग लो और उस अंधेरी राहों में बिछा दो जहां उजाले की सख्त ज़रूरत है।
■ समझ लो तुम भागने के लिए तैयार नहीं तो फिर कोई ताक़त तुम्हें नहीं भगा सकती। आओ अहद करो (क़सम उठाओ) कि ये मुल्क हमारा है। हम इसी के लिये हैं और उसकी तक़दीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे।
■ अज़ीज़ों! मेरे पास कोई नया नुस्ख़ा नहीं है। वही 1400 बरस पहले का नुस्ख़ा है। वो नुस्ख़ा जिसको क़ायनात के सबसे बड़े मोहसिन (हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) लाए थे। वो नुस्ख़ा है क़ुरान का ये ऐलान, "बददिल न होना, और न ग़म करना, अगर तुम मोमिन हो, तो तुम ही ग़ालिब होओगे।"
■ मुझे जो कुछ कहना था वो कह चुका, लेकिन मैं फिर कहता हूं और बार-बार कहता हूं अपने हवास पर क़ाबू रखो। अपने गिर्द-ओ-पेश अपनी ज़िंदगी के रास्ते खुद बनाओ। ये कोई मंडी की चीज़ नहीं कि तुम्हें ख़रीदकर ला दूं। ये तो दिल की दुकान ही में से अमाल (कर्म) की नक़दी से दस्तयाब (हासिल) हो सकती हैं। अस्सलामु अलैकुम!
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सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़
आदर्श मुस्लिम व आदर्श मीडिया नेटवर्क
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