दलाल मीडिया वर्सेज़ अल्टरनेट मीडिया

  • Sun, 19 Apr 2020
  • National
  • Saleem Khilji

पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर एक पोस्ट बहुत ज़्यादा बार शेयर की गई है। पोस्ट का टाइटल है, #दलाल_मीडिया और #मुसलमान शायद ये पोस्ट आप तक भी पहुंची होगी और हो सकता है कि आपने भी इसे आगे शेयर किया होगा। आज के ब्लॉग में हम इस पोस्ट पर तर्कसंगत व तथ्यों के साथ तब्सिरा करेंगे, इंशाअल्लाह।

■ उक्त पोस्ट किसकी है?

ज़्यादातर जगहों पर यह बेनामी पोस्ट हुई है लेकिन कुछ जगह मेरठ के एक मुस्लिम सपा नेता गुलशेर राणा का नाम, बतौर लेखक देखने को मिला।

■ क्या है उक्त पोस्ट में?

इस पोस्ट में एक मुसलमान का आक्रोश झलकता है। पोस्ट का लेखक, मुस्लिम समाज के इल्मी दुनिया से लेकर फ़िल्मी दुनिया तक, तथा कारोबार से लेकर राजनीति तक के सभी बड़े-बड़े नामों और संस्थानों का ज़िक्र करते हुए भारत के मुसलमानों को लताड़ता है कि इन सबके होते हुए आपने अपना कोई न्यूज़ चैनल, रेडियो स्टेशन या राष्ट्रीय स्तर का अख़बार खड़ा क्यों नहीं किया? उन तमाम नामों को दोहराकर हम इस ब्लॉग को लम्बा नहीं करना चाहते।

पोस्ट का लेखक, मीडिया हाउस खोलने में मुस्लिम समाज की नाकामी का कारण, दीनी जलसों, इज्तिमों और उर्सों में होने वाले खर्चों को भी मानता है।

वक़्फ़ बोर्ड की ज़मीनों की बंदरबांट और बदइंतज़ामी को भी वो इसके लिये दोष देता है। वो मुसलमानों को ताजमहल, क़ुतुबमीनार, लाल किले पर इतराने पर भी रोष जताता है।

उसके बाद मीडिया को जर्नलिज़्म से दूर एक मुनाफ़ाखोर कॉरपोरेट बताते हुए कहता है कि वो लोग जो-कुछ कर रहे हैं, अपने मुनाफ़े के लिये कर रहे हैं, इसलिये वो जो दिखाएंगे, आपको देखना पड़ेगा।

अंत में वो मुसलमानों से काहिलपन छोड़कर वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की बात कहता है।

आइये, अब हम इसका विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं।

01. मीडिया कॉरपोरेट नहीं है

हमारे देश में कॉरपोरेट्स यानी कारोबारियों के लिये अलग क़ानून है और मीडिया के लिये अलग नियम हैं। अगर मीडिया कॉरपोरेट होता तो सरकार उसके गुण-दोष पर नज़र रखने के लिये प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) नहीं बनाती। मीडिया से जुड़े लोगों को बहुत सारी विशेष सुविधाएं नहीं देती, एक पत्रकार होने के नाते जिन्हें अगर हम गिनाने बैठें तो यह ब्लॉग बहुत लम्बा हो जाएगा। मीडिया से जुड़े लोगों को यह सब सुविधाएं इसलिये दी गई ताकि लोगों तक सही ख़बरें पहुंचे। जनता को यह एहसास हो कि भारत एक गणराज्य है। यह राजतंत्र नहीं है।

इसलिये मीडिया को कॉरपोरेट नहीं कहा जा सकता। हर मीडिया ग्रुप प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) के प्रति जवाबदेह है। 14 अप्रैल 2020 को जमीयत उलमा-ए-हिंद की मीडिया में दिखाई गई आपत्तिजनक कवरेज के ख़िलाफ़ दायर रिट पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) को एक पार्टी बनाकर जवाब दाख़िल करने का निर्देश दिया है।

02. दलाल मीडिया जैसा लफ़्ज़ इस्तेमाल करना क्यों ग़लत है?

सबसे पहले दलाल शब्द का मतलब समझिये। यह शब्द उस व्यक्ति के लिये इस्तेमाल होता है जो एक निश्चित राशि लेकर किसी अन्य व्यक्ति की तारीफ़ करता है या उसको फायदा दिलाने वाला कोई काम करता है।

हम भी दलाल मीडिया शब्द को ग़लत समझते हैं क्योंकि ऐसा कहने से पहले, कहने वाले को, दलाली देने वाले व्यक्ति के बारे में मीडिया को दलाली देने के सबूत होने चाहिये।

हम इसके लिये बाज़ारवादी मीडिया शब्द का इस्तेमाल उचित समझते हैं जो कि अपने मुनाफ़े के लिये रिपोर्टिंग करता है। यहाँ हम इस बात को भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मीडिया का नफ़ा-नुक़सान देखकर रिपोर्टिंग करना, प्रेस नियमों के ख़िलाफ़ है। हमें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन मामले के नतीजे में इस बारे में स्पष्ट गाइडलाइंस जारी की जाएंगी।

03. इल्मी इदारों, कारोबारी, नेता, अभिनेता मुस्लिमों की सीमाएं क्या है?

पहली बात तो यह कि मीडिया हाउस बनाना, इन सबका काम है ही नहीं। इल्मी इदारे, अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए ईमानदार मीडिया का प्रोत्साहन कर सकते हैं। कारोबारी मुसलमान कुछ हद तक आर्थिक मदद कर सकते हैं। लेकिन नेता और अभिनेता खुलकर मुस्लिम मीडिया या हिंदू मीडिया जैसा शब्द इस्तेमाल भी नहीं कर सकते। वजह आप समझते ही हैं।

04. समाज में फैली कुरीतियों पर होने वाले ख़र्च पर चिंता क्यों नहीं?

दलाल मीडिया और मुसलमान पोस्ट के लेखक ने एक मुद्दे को बिल्कुल भी नहीं छुआ, वो है मुस्लिम समाज में फैली कुरीतियां। मुस्लिम समाज में शादी-ब्याह से लेकर मौत-गमी तक, कितने ग़ैर-इस्लामी रिवाज चलन में हैं? कितने रूपयों की उनमें बर्बादी होती है, कभी इन मुद्दों पर ग़ौर किया?

1912 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपने अख़बार, अल बलाग़ में शादी-ब्याह पर होने वाले खर्चों पर चिंता जताते हुए उन्हें मुसलमानों की बर्बादी का ज़िम्मेदार बताया था। 108 साल बाद आज भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं।

05. अल्टरनेट मीडिया बनाने के लिये क्या करना होगा?

यह सच है कि मुस्लिम समाज को इस दिशा में क़दम बढ़ाना ही होगा। लेकिन यह भी याद रहे कि इस काम को हर कोई नहीं कर सकता। अनाप-शनाप बकने वाला मीडिया तो पैसे के दम पर चलाया जा सकता है लेकिन तर्कसंगत बात कहने के लिये मीडियाकर्मी को इतिहास से लेकर वर्तमान तक, दीने-इस्लाम से लेकर अन्य धर्मों तक और साहित्य से लेकर फिल्मों तक सभी तथ्यों का ज्ञान होना चाहिये। अगर यह नहीं है तो कुछ नहीं हो सकता। शायद दलाल मीडिया और मुसलमान पोस्ट के लेखक का ध्यान इस ओर भी नहीं गया।

याद रखिये! पैसों से प्रेस संबंधी मशीनरी तो ख़रीदी जा सकती है लेकिन उस मशीनरी का इस्तेमाल करके अच्छा मीडिया बनाने के लिये ब्रैन पावर भी चाहिये। अच्छा दिमाग़ बाज़ार में नहीं मिलता। इस सच को स्वीकारे बिना आगे बढ़ना मुश्किल होगा।

इस तब्सरे के बाद यह बात समझ लेनी चाहिये कि सिर्फ़ नकारात्मक बातें कहने-सुनने, लिखने-पढ़ने और शेयर करने से मन में मायूसी आती है। इस क़ौम का कुछ नहीं हो सकता जैसी नेगेटिव सोच पैदा होती है। अच्छा रास्ता यही है कि समस्या बताने के बाद समाधान सुझाया जाए। इस काम में मैं फलां मदद कर सकता हूँ यह भी बताया जाए।

■ अल्टरनेट मीडिया की दुनिया में आपका स्वागत है

उक्त पोस्ट के लेखक ने इस वाक्य के साथ अपनी बात ख़त्म की है, टेक्नोलॉजी का दौर है, टैक्निकल हो जाओ। इस बात से हम सहमत हैं। इसलिये टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए हमने एक कोशिश शुरू की है।

blogs.adarshmuslim.com के ज़रिए अल्टरनेट मीडिया बनाने की दिशा में पहला क़दम बढ़ाया है। आगे अभी बहुत-किया जाना बाक़ी है। जैसे-जैसे काम में प्रगति होगी, हम आपको उसकी सूचना देंगे।

अंत में फिर यही अपील है, हमारे साथ बने रहिये। दूसरे लोगों तक बात पहुंचाने के लिये इस पोस्ट को शेयर कीजिए। सलीम ख़िलजी चीफ़ एडिटर आदर्श मुस्लिम