पार्ट-2 : ज़कात को ज़ाया (बर्बाद) न होने दें
रमज़ान शुरू होने के साथ ही ज़कात माँगने वाले साहिबे-हैसियत लोगों के पास पहुँचने लगते हैं। ज़्यादातर लोग बिना तहक़ीक़ात किये ज़कात का पैसा उन्हें दे भी देते हैं।
आजकल बहुत-से लोग सोशल मीडिया पर एड करके भी ज़कात की माँग करते हुए देखे जा सकते हैं। वे अपनी अपील के साथ अपना पेटीएम, फ़ोनपे, गूगलपे, यूपीआई नम्बर भी देते हैं और उसमें ज़कात की रकम का ऑनलाइन पेमेंट डालने के लिये कहते हैं।
दो सवाल बहुत अहम हैं,
01. ज़कात किसको दी जाए?
ज़कात के 8 हक़दार हैं, जिनका ज़िक्र अल्लाह तआला ने सूरह तौबा, आयत नम्बर 60 में किया है। आदर्श मुस्लिम के 1-15 मार्च 2022 एडिशन में उसके बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है।
इन 8 हक़दारों के अलावा किसी और को ज़कात नहीं दी जा सकती। मिसाल के तौर पर, किसी ग़रीब की बेटी की शादी करवाना यक़ीनन नेकी का काम है लेकिन इस मद में ज़कात नहीं दी जा सकती। इसकी वजह यह है कि निकाह के सारे ख़र्च की ज़िम्मेदारी अल्लाह तआला ने मर्द पर रखी है।
अगर कोई मर्द "नामर्द" हो और वो दहेज और दावत वसूल किये बिना निकाह करने पर आमादा नहीं हो रहा हो तो उस सूरत में लड़की के घरवालों की इमदाद के ज़रिए मदद की जा सकती है लेकिन ज़कात नहीं दी जा सकती।
सबसे बेहतर बात तो यह है कि दूल्हे और उसके घरवालों को बिना दहेज व दावत के, सुन्नत तरीक़े से शादी करने पर आमादा करने की कोशिश की जानी चाहिये।
02. ज़कात कितनी दी जाए?
जितनी रक़म से ज़रूरत पूरी हो जाए। मिसाल के तौर पर जो लोग आमिलीन हैं, यानी किसी मदरसे के लिये ज़कात वसूल करने के लिये जाते हैं उनको एक महीने के घर ख़र्च व सफ़र खर्च के बराबर ज़कात दी जाए।
बहुत-से लोग मदरसों के लिये 30 पर्सेंट से लेकर 50 पर्सेंट कमीशन के बेस पर ज़कात वसूली का काम करते हैं। ऐसा करना मुनासिब नहीं है। ऐसा क्यों? आइये समझने की कोशिश करते हैं।
अगर ज़कात वसूली करने वाला शख़्स उस मदरसे का मुलाज़िम है तो वो "ऑन-ड्यूटी" है इसलिये उसको तयशुदा माहाना तनख़्वाह के साथ सफ़र का ख़र्च दिया जाए। उसे 30% से लेकर 50% तक कमीशन दिया जाना ज़कात को बर्बाद करने वाला अमल है।
अगर ज़कात वसूली करने वाला शख़्स, उस मदरसे का मुलाज़िम नहीं है तो उसे सफ़र ख़र्च के अलावा उतनी तनख़्वाह दी जाए जितनी वो बाक़ी महीनों में कमाता है। लेकिन कमीशन के बेस पर ज़कात वसूली करने के लिये भेजने मदरसे को बड़ा नुक़सान होता है क्योंकि उस इदारे तक क़रीब आधी रकम ही पहुँचती है।
हो सकता है कि ऊपर बयान की गई बातें किसी को नागवार और बुरी लग रही हो लेकिन किसी को ख़ुश करने के लिये हक़ीक़त को बयान न करना और भी बुरा काम है।
इस सीरीज़ के पार्ट-01 में हमने फ़र्ज़ी मदरसे वालों से आगाह करने की कोशिश की थी।
इसलिये एक बार फिर, हमारी राय यह है कि रमज़ान की शुरूआत से हिसाब लगाकर ज़कात की रक़म को अलग करके रख दें। फिर जब आप उसके असल हक़दार की पहचान कर लें तो उसे अदा कर दें।
इस संबंध में तफ़्सील से जानकारी उपलब्ध कराने का सिलसिला जारी रहेगा, इं-शा-अल्लाह!
अल्लाह तआला हमें सहीह बात कहने, सुनने व समझने की तौफ़ीक़ अता फरमाए, आमीन।
वस्सलाम,
सलीम ख़िलजी
एडिटर इन चीफ़,
आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क
जोधपुर राजस्थान। व्हाट्सएप/टेलीग्राम : 9829346786
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