लॉक डाउन मैसेज-4 : शादी में सादगी अपनाने की ज़रूरत
इस सीरिज़ के चौथे पार्ट में हम शादी-सगाई के नाम पर होने वाली पैसे की बर्बादी पर तर्कसंगत तब्सरा करेंगे, इंशाअल्लाह।
अगर भारतीय समाज को शादी-केंद्रित समाज कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। मालदारों के लिये शादी-सगाई का फंक्शन उनकी रईसी दिखाने का अवसर होता है। मिडल क्लास लोग ख़ुद को हाई सोसायटी का साबित करने के चक्कर में अपनी सारी बचत ख़र्च कर डालते हैं। कई लोग क़र्ज़ लेकर ये शौक़ पूरा करते हैं।
मालदारों और उनकी होड़ करने वाले मिडल क्लास लोगों की दिखावापरस्ती की क़ीमत ग़रीब परिवारों को चुकानी पड़ती है। ग़रीब परिवारों की पढ़ी-लिखी और ख़ूबसूरत बेटियों की भी इसलिये शादी नहीं हो पाती क्योंकि उनके बाप जहेज़ व दीगर ख़र्च जुटा पाने में नाकाम रहते हैं।
किताबे-ज़ीस्त का रंगीन बाब बीत गया,
जहेज़ बन न सका और शबाब बीत गया।
सन 1987 की बात है, मैं नया-नया दीनदार बना था। बीएससी की पढ़ाई के दौरान एक दिन यूनिवर्सिटी कैम्पस में मर्द की क़व्वामियत पर मैं दर्स दे रहा था। एक क्रिश्चियन लड़की ने मुझसे कहा था, जो मर्द अपनी बीवी के लिये बेड-बिस्तर का भी इंतज़ाम न कर सके, उसे सरताज कहलाने का क्या हक़ है? ये लड़की जोधपुर यूनिवर्सिटी में एमएससी (केमिस्ट्री) कर रही थी और मेरी सीनियर थी।
उस वक़्त मेरी उम्र 18 साल की थी और मुझे उसका यह स्टेटमेंट थप्पड़ की तरह महसूस हुआ। अल्लाह करे कि यह तमाचा हर मुसलमान मर्द महसूस करे।
★ इस्लामी शरीयत में सगाई के नाम पर होने वाले फंक्शन का कोई सबूत नहीं है।
★ इस्लामी शरीयत में निकाह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत है।
★ कम ख़र्च में होने वाली शादियों को बरकत वाली कहकर इस्लाम ने शादी को सादगी से करने का हुक्म दिया है।
★ शादी में फ़िज़ूलख़र्ची करना, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नाफ़रमानी करने के समान है।
क्या एक बात पर किसी ने ग़ौर किया? बेटी के निकाह का ईजाब व क़ुबूल, चाहे मस्जिद में किया जाए या किसी महंगे मैरिज प्लेस में कराया जाये, उसका रिज़ल्ट एक ही होता है, "वो यह कि बेटी ससुराल जाती है।" ससुराल में उसकी आगे की ज़िंदगी उसके अख़लाक़ और बर्ताव पर निर्भर करती है, न कि उसकी शादी में उसके बाप द्वारा किये गये शाहाना ख़र्च पर।
अगर बाप वाक़ई अपनी बेटी का भला चाहता है तो उसे चाहिये कि बेटी का निकाह सादगी के साथ मस्जिद में करे और विरासत में हिस्सा देकर बेटी को आर्थिक रूप से मज़बूत बनाए। याद रखिये, क़यामत के दिन बेटी को विरासत न देने वाले मालदारों की भारी पकड़ होगी।
अगर इतना ईमान मज़बूत न हो तो कम से कम यह तो कर ही सकता है कि बेटी की शादी का फंक्शन मस्जिद में रखकर, मैरिज प्लेस के किराये, डेकोरेशन, खाने का ख़र्च, बेड-बिस्तर-दहेज आदि पर किये जाने वाले ख़र्च के बराबर कोई जायदाद बेटी के नाम ख़रीदकर उसे दे दे।
लॉक डाउन के दौरान सरकार ने गाइडलाइंस जारी की है कि शादी में 50 से ज़्यादा मेम्बर्स नहीं बुला सकते। अभी सरकार के डर से जो लोग सादगी से शादियां कर रहे हैं वो लोग, पूरी कायनात के बादशाह अल्लाह से डरकर हमेशा के लिये शादी-सगाई में सादगी क्यों नहीं अपनाते? वे लोग अप्रत्यक्ष रूप से ग़रीबों पर पड़ने वाले इस बोझ को क्यों नहीं हटा देते?
माफ़ कीजियेगा अगर किसी को बुरा लगा हो लेकिन यह लॉक डाउन का चौथा मैसेज है कि अल्लाह तआला ऐसे हालात पैदा करने पर क़ादिर है कि हम चाहकर भी जश्ने-शादी नहीं मना सकते। अगली कड़ी में फिर किसी विचारोत्तेजक मैसेज पर चर्चा होगी, इंशाअल्लाह।
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