कोरोना इफेक्ट्स-02 : प्रिंट मीडिया के वजूद का संकट


हर साल 3 मई को वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के रूप में मनाया जाता है। इस साल प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग 142 दी गई है, जो कि पिछले साल के मुक़ाबले 2 रैंक नीचे है। इस रैंकिंग पर केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ऐतराज़ जताया है। हमारे देश में अख़बारों के प्रकाशन का सिलसिला अंग्रेज़ों के शासनकाल से चला आ रहा है। देश की आज़ादी के आंदोलन में अख़बारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद, लोकमान्य तिलक सहित कई बड़े स्वतंत्रता सेनानियों ने जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिये अख़बार का सहारा लिया। आज़ादी के बाद प्रिंट मीडिया की अहमियत और ज़्यादा बढ़ गई। लेकिन प्रिंट मीडिया आज परेशान क्यों है? कोरोना इफेक्ट्स सीरिज़ के दूसरे भाग में आज हम इस मुद्दे पर चर्चा करेंगे, इंशाअल्लाह।

अकबर इलाहाबादी अंग्रेज़ शासित भारत में डिप्टी मजिस्ट्रेट रहे थे लेकिन हम लोग उन्हें उनकी शायरी के लिये जानते हैं। अख़बारों की अहमियत के बारे में उनका मशहूर शे'र है,

खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।

इस शे'र को हम आदर्श मुस्लिम अख़बार के पहले अंक से लेकर आज तक एडिटोरियल कॉलम के ऊपर लिखते चले आ रहे हैं। अख़बारों ने जनता को जागरूक करने में बड़ी भूमिका निभाई है। आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद, अख़बार जन सहयोग से ही चलते रहे। जनता में उनकी विश्वसनीयता थी, लोग अख़बार की ख़बरों पर भरोसा करते थे। अकबर इलाहाबादी ने एक और शे'र में लिखा था,

इस वक़्त वहां कौन धुंआ देखने जाए?
कल अख़बार में पढ़ लेंगे, कहाँ आग लगी थी?

वही अख़बार आज अपने भविष्य को लेकर परेशान हैं। इसके कारणों पर हम चर्चा करेंगे उसके पहले हम एक रिपोर्ट की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं।

■ INS ने बताया, प्रिंट मीडिया को 2 महीने में कितना हुआ नुकसान?


इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी (INS) ने बताया है कि कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री, विज्ञापन राजस्व में कमी और न्यूज प्रिंट पर कस्टम ड्यूटी के कारण आर्थिक संकट का सामना कर रही है।

इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी (INS) के एक अनुमान के मुताबिक़ प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री में विज्ञापनों की कमी की वजह से मार्च और अप्रैल 2020 में लगभग 4,500 करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ है।

INS ने आशंका जताई है कि अगले सात महीनों तक प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री को और ज़्यादा नुकसान हो सकता है। INS के आंकलन के मुताबिक़ आगामी सात महीने में क़रीब 15,000 करोड़ रुपए तक का नुक़सान हो सकता है। आईएनएस ने कहा है कि अगर सरकार अच्छा खासा प्रोत्साहन पैकेज देती है, तो इस नुक़सान से निपटा जा सकता है।

इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी के प्रेसिडेंट शैलेश गुप्ता ने कहा है कि घाटे की वजह से अख़बार कंपनियां अपने कर्मचारियों और वेंडर्स के वेतन का भुगतान करने में असमर्थ हैं।

आईएनएस ने अख़बारी कागज (न्यूजप्रिंट) पर आयात शुल्क हटाने और दो साल तक टैक्स न लिए जाने की अपनी बात फिर दोहराई है। INS ने सरकार से यह भी आग्रह किया है कि वह ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन की विज्ञापन दरों को 50 प्रतिशत तक बढ़ाएं और बजट खर्च में भी 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी करें।

अगर हम INS की बात मानें तो मतलब यह निकलता है कि सरकार द्वारा आर्थिक पैकेज न मिलने की दशा में प्रिंट मीडिया के वजूद के लिये बड़ा ख़तरा मुंह बाये खड़ा है।

■ प्रिंट मीडिया के सामने ऐसी नौबत क्यों आई?

जब महात्मा गांधी ने 6 अगस्त 1919 में अपना साप्ताहिक अख़बार यंग इंडिया शुरू किया था, तब उनके सामने भी उसके निरंतर प्रकाशन को लेकर सवाल उठा था। गांधीजी ने यह तय किया था कि हम अख़बार चलाने के लिये अपने पाठकों से सहयोग राशि लेंगे। न सरकारी अनुदान की बैसाखी थामेंगे और न विज्ञापनदाताओं के धन पर निर्भर रहेंगे। इसी तर्ज़ पर मौलाना आज़ाद ने अपने अख़बार, अल बलाग़अल हिलाल को चलाया था।

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। लेकिन जब मीडिया, लोक यानी जनता को एक ग्राहक या यूज़र मानने लगे, उसको पूर्वाग्रह भरी ख़बरें परोसने लगे तो फिर उसका जनता से जुड़ाव ख़त्म हो जाता है। आज यही हो रहा है।

प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स के आने के बाद अख़बारों में बदलाव का दौर शुरू हुआ। नई मशीनरी आई, अधिकांश अख़बार ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन हो गये। कई अख़बारों ने अपने मूल राज्य व शहर से बाहर निकलकर अन्य राज्यों के ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में अपने संस्करण छापने शुरू किये। इसी के साथ उनका ख़र्च बढ़ा जिसकी पूर्ति के लिये अख़बार विज्ञापनों पर निर्भर हो गये। इस दौरान कुछ अख़बारों के बीच गलाकाट कंपीटिशन भी शुरू हुआ। अख़बारों की प्रिंटिंग लागत बढ़ने के बावजूद उनकी क़ीमतें कम की गई। लेकिन उस वक़्त भी उन्होंने कभी घाटे का रोना नहीं रोया और न अपने वजूद पर संकट की बात की।

अख़बारों पर बाज़ार हावी हुआ तो वो बाज़ारवादी मीडिया बन गया। अख़बार का पाठक ग्राहक बन गया। यदा-कदा यह भी इल्ज़ाम लगते रहे कि कुछ अख़बार, किसी विशेष राजनीतिक पार्टी या औद्योगिक समूह को फ़ायदा पहुंचाने की नीति के तहत रिपोर्टिंग करते हैं। उनकी विश्वसनीयता पर शक किया जाने लगा। कुछ बिज़नेस ग्रुप्स ने भी मीडिया चैनल्स व अख़बारों का अधिग्रहण किया।

अख़बारों ने ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को अपने साथ जोड़ने की होड़ में करोड़ों रुपये के इनाम बाँटने की योजनाएं चलाईं। लॉक डाउन लागू होने से पहले यानी मार्च 2020 के दूसरे सप्ताह तक "राजस्थान पत्रिका" और "दैनिक भास्कर" जैसे बड़े हिंदी अख़बार करोड़ों रुपयों की इनामी योजना के कूपन छाप रहे थे। हर ग्राहक को गारंटीड इनाम देने के लिये फॉर्मेट प्रकाशित कर रहे थे। आज जो वित्तीय संकट की बात कर रहे हैं, उन अख़बारों को यह स्पष्ट करना चाहिये कि इनाम के रूप में बांटे जाने वाले वे करोड़ों रुपये कहाँ से आ रहे थे?

जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कोरोना के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े भार के चलते सरकारी विज्ञापनों में कटौती की बात कही तो आईएनएस ने कड़ा प्रतिरोध किया। जिस तरह सरकार से पैकेज माँगा जा रहा है क्या उसके बाद मीडिया सरकार की ग़लत नीतियों पर मुखर अंदाज़ में रिपोर्टिंग कर पाएगा?

■ मीडिया पर मुक़द्दमे क्यों?

आज वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के अवसर पर, इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की गई कि मुक़द्दमों के ज़रिए प्रेस की आवाज़ को दबाया जा रहा है। हम भी मीडिया का एक पार्ट होने के नाते, प्रेस की आज़ादी के समर्थक हैं। हम भी मानते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई अंकुश न हो। लेकिन मीडिया समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह भी नहीं मोड़ सकता।

मीडिया को दो तरह के मुक़द्दमों का सामना करना पड़ रहा है। एक सरकार द्वारा, दूसरा जनता द्वारा।

ऐसी कई ख़बरें सामने आई हैं कि सरकार या सरकार से जुड़े किसी नेता की छवि बिगाड़ने वाली ख़बर छापने पर किसी मीडिया को नोटिस जारी किये गये या मुक़द्दमा किया गया। अगर कोई मीडिया झूठी ख़बर छापे तो यक़ीनन यह ग़लत काम है लेकिन ख़बर तथ्यों पर आधारित हो तो प्रेस की आज़ादी का सम्मान किया जाना चाहिये।

हाल ही में कई न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों ने एक समुदाय विशेष या किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण तरीक़ों से रिपोर्टिंग की। उनकी छवि ख़राब करने की कोशिश की। नतीजा यह हुआ कि देश का साम्प्रदायिक सद्भाव बिखरने लगा। ऐसे हालात में अगर कोई मीडिया दोषी पाया जाता है तो उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई होना न्यायसंगत है। प्रेस की आज़ादी का यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि वो पूर्वाग्रही रिपोर्टिंग के ज़रिए साम्प्रदायिकता भड़काने का काम करे।

■ कुछ अहम सुझाव

01. प्रिंट मीडिया फिर से जनता की आवाज़ बनें। पाठक को पाठक समझे, ग्राहक नहीं। अख़बार जनहित की ख़बरें छापें, जनता का विश्वास जीतें और पाठकों के पैसे से अख़बार चलाएं, जिस तरह पहले चलते थे।

02. प्रिंट मीडिया बाज़ारवादी नीतियों का त्याग करे। अपनी आपसी होड़ को ख़त्म करें। ग़ैर-ज़रूरी संस्करण बंद करके अपना ख़र्च घटाएं।

03. लॉकडाउन से पहले जो अख़बार 24 से 28 पेज के आते थे वो अब 12 से 14 पेज के हो गये हैं। ज़ाहिर है बाक़ी पेज विज्ञापनों से भरे जाते थे। अगर विज्ञापन कम मिल रहे हैं तो अख़बार स्थायी रूप से पेज घटाकर अपनी लागत कम करें।

04. सरकार को चाहिये कि अख़बारी काग़ज़ को हर तरह के टेक्स से मुक्त करे। प्रेस के काम आनेवाले उपकरणों को भी टेक्स फ्री करे। पत्रकारों के लिये मुफ़्त इलाज व पेंशन जैसी योजनाओं को लागू करे।

इस सीरिज़ का पहला पार्ट सोशल मीडियाई साम्प्रदायिकता और हमारे अन्य ब्लॉग्स पढ़ने के लिये More Blogs पर क्लिक करें।

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