प्रेक्टिकल एप्रोच इख़्तियार करने की ज़रूरत* (आज के हालात में मुसलमानों की ज़िम्मेदारी : पार्ट-03)

प्रेक्टिकल एप्रोच इख़्तियार करने की ज़रूरत* (आज के हालात में मुसलमानों की ज़िम्मेदारी : पार्ट-03)

यति नरसिंहानंद सरस्वती ने प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इस्लाम के आख़री नबी, हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़िलाफ़ बेहूदा टिप्पणियां कीं। कुछ मुसलमानों ने हमेशा की तरह जज़्बात में आकर ऐसी टिप्पणियां कर दी हैं जिनको भुनाकर यति नरसिंहानंद अपना बेस बढ़ाने में लगा हुआ है। इस ब्लॉग के साथ दी हुई तस्वीरों को देखिये, आपको सारा माजरा समझ में आ जाएगा। अब उसके भक्त उसके लिये विशेष सुरक्षा की माँग कर रहे हैं।

अगर हम कमलेश तिवारी, अमीश देवगन और इसी सिलसिले के पिछले कई लोगों के मामले को देखें तो पता चलता है कि उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्रवाई नहीं हुई। क्या आप जानते हैं क्यों नहीं हुई?

आइये हम इस मामले की हक़ीक़त आपके सामने पेश करते हैं। जब कभी कोई व्यक्ति, किसी भारतीय नागरिक की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है तो अदालत पहले यह देखती है कि उसने यह अपराध जान-बूझकर किया है या अनजाने में। इसी कार्रवाई में काफ़ी वक़्त गुज़र जाता है। अगर अपराध साबित हो जाता है तो भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 295-A के तहत अधिकतम तीन साल की सज़ा हो सकती है।

01. ज़्यादातर मामलों में मुसलमान एहतिजाज़ी जुलूस निकालकर, "फाँसी दो" के नारे लगाकर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर, अख़बार में न्यूज़ छपवाकर, न्यूज़ चैनल पर बाइट देकर अपने फ़र्ज़ को अदा हुआ समझ लेता है।

02. इससे ज़्यादा हुआ तो कुछ मामलों में मुसलमान एफआईआर दर्ज करवा देता है और फिर आराम से घर बैठ जाता है। मुक़द्दमे की ढंग से पैरवी न करने की वजह से पुलिस FR लगाकर मामले को बंद कर देती है।

03. यह भी देखने में आया है कि अगर एफआईआर करवाने वाला शख़्स मज़बूत या बड़ी शख्सियत हुआ तो विरोधी पक्ष, वादी के ख़िलाफ़ क्रॉस केस कर देता है। ऐसी परिस्थितियों में मुक़द्दमा दर्ज करवाने वाला राजीनामा कर लेता है और मामला रफा-दफा हो जाता है।

04. उपरोक्त परिस्थितियां न बनने पर मुल्जिम, सज़ा से बचने के लिये माफ़ी माँग लेता है और मुसलमान उसकी माफ़ी क़ुबूल करके सज़ा दिलाने का मिशन भूल जाता है।

वसीम रिज़वी मामले को देखिये। उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई उल्टे वो अपनी जान को ख़तरा बताकर "Y श्रेणी की सुरक्षा" पाने में कामयाब हो गया। इसलिये यति नरसिंहानंद सरस्वती को पक्का यक़ीन है कि हमेशा की तरह इस बार भी यही होगा।

फ़िलहाल यति नरसिंहानंद अपने फ़ॉलोअर्स की तादाद में इज़ाफ़ा करने में लगा है। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि वो अपने समर्थकों की तादाद के दम पर किसी पॉलिटिकल पार्टी का टिकट पाकर एमपी या एमएलए बन जाएगा।

ऐसे लोगों का परमानेंट इलाज क्या है?

सबसे पहले तो मुसलमानों को चाहिये कि सुप्रीम कोर्ट में एक रिट दायर करे। किसी भी धर्म, धार्मिक किताब, धर्म के प्रवर्तक या नबी के ख़िलाफ़ अपमानजनक टिप्पणी को देश की एकता और अखंडता के लिये ख़तरा बताने वाले अपराध की श्रेणी में लाने के लिये पूरी ताक़त झौंक दे।

पिछले कुछ सालों की घटनाओं के सुबूतों के साथ मज़बूत ढंग से इस मुक़द्दमे की पैरवी करें। ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ देशद्रोह की धारा और "ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम (UAPA)" के तहत कार्रवाई करने का आदेश पारित कराने के लिये हर मुमकिन कोशिश करें।

याद रखिये! जब तक धार्मिक भावनाओं को भड़काने या उसे ठेस पहुंचाने के जुर्म की सज़ा फांसी या उम्रक़ैद नहीं होगी तब तक ऐसे मुजरिमों के हौसले टूटने वाले नहीं हैं।

दूसरा इलाज : अल्लाह की पनाह पकड़ें

मुसलमानों को चाहिये कि धार्मिक अपराधियों को क़ानूनी सज़ा दिलाने की कोशिश करने के साथ-साथ, फ़ज्र, मग़रिब, इशा और जुम्आ की नमाज़ में क़ुनूते नाज़ला पढ़कर उनके लिये बद्-दुआ करें। याद रखिये! दुनिया की अदालत में नाइंसाफी हो सकती है लेकिन अल्लाह की अदालत ऐसी सज़ा देती है कि मुजरिमों की पीढ़ियों तक को याद रहता है।

इस ब्लॉग को शेयर करके सहयोग करें। सलीम ख़िलजी (एडिटर इन चीफ़, आदर्श मुस्लिम अख़बार व आदर्श मीडिया नेटवर्क) जोधपुर राजस्थान।

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