नफ़रत फैलाने वाले मीडिया के ख़िलाफ़ "असहयोग आंदोलन" कीजिये

दोस्तों! मीडिया का काम है सच्चाई लोगों तक पहुंचाना। अँग्रेज़-सत्ता से देश को आज़ाद कराने में उस समय के अख़बारों ने महती भूमिका निभाई थी। *लेकिन आज अधिकांश मीडिया ग्रुप्स देश की जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का एहसास भूल गये हैं।* उन्हें पटरी पर कैसे लाया जाये? यही आज की पोस्ट का विषय है।

मीडिया के ज़रिए नित नये तरीक़ों से ज़हरबयानी का सिलसिला जारी है। हाल ही में जागरूक जनता द्वारा, मीडिया से किये जा रहे कुछ सवालों की वजह से ज़हर की मात्रा थोड़ी कम हो गई है लेकिन मौक़ा मिलते ही उनके पूर्वाग्रह फिर से सामने आ जाते हैं।

कोरोना के बाद पैदा हुई परिस्थितियों से निबटने के लिये कुछ राज्य सरकारों ने एक्सपर्ट समितियों का गठन किया। समिति राज्य सरकार को रिपोर्ट देती है। हालात क्यों बिगड़े और उनको नियंत्रित कैसे किया जाये, उन पर अपनी ओपीनियन देती हैं। जिस मीडिया ग्रुप के मन में पूर्वाग्रह है वो उनमें से अपने मतलब का पैराग्राफ़ छांटकर उसको हेडलाइन बना देता है। नतीजा यह होता है कि एक समुदाय विशेष को फिर सूली पर चढ़ा दिया जाता है। ज़हरबयानी का सिलसिला फिर शुरू हो जाता है।

31 मार्च 2020 को हमने एक लेख बाज़ारवादी मीडिया क्या चाहता है? में विस्तार से पूर्वाग्रही मीडिया की मानसिकता को उजागर करने की कोशिश की थी। हमारे पास हर रोज़ दर्जनों मैसेज आते हैं जिसमें मीडिया की ग़लत हरकतों की झलक होती है। लोग हमसे उम्मीद रखते हैं कि इनका जवाब दिया जाये। पिछले 2-3 दिनों हमने पूर्वाग्रही मीडिया के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई कैसे की जाए, इसके बारे में जानकारी दी थी, आज हम एक और प्रभावी तरीक़े आर्थिक असहयोग पर विचार-विमर्श करेंगे।

■ मीडिया की लाइफलाइन कैसे काटी जाए?
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एक बड़ा हिंदी अख़बार, जो पिछले कई दिनों से मुस्लिम समाज के प्रति ज़हरबयानी कर रहा है, उसमें एक अपील छपी है। उस अपील में पाठकों से कहा गया है कि अख़बार का मासिक पेमेंट जल्दी करके वितरक और हॉकर बंधुओं का सहयोग करें।

जब लोगों की आमदनी के ज़रिए बंद पड़े हैं, खाने-पीने के लिये बहुत से लोग दूसरों पर निर्भर हो गये हैं, यह जानते हुए भी उस अख़बार को यह अपील जारी करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

जब देश में हालात सामान्य थे। काम-धंधा सुचारू रूप से चल रहा था, उस समय हॉकर्स 6-6 महीने तक पैसा माँगने नहीं आते थे लेकिन आज जब लोगों की जेब में पैसा नहीं है तब यह तकाज़ा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

पैसा मीडिया की लाइफलाइन है। यह बात हम सब जानते हैं। मीडिया को एक बहुत बड़ी रक़म, सरकारी विज्ञापनों से मिलती है। इस समय ख़र्च में कटौती के चलते यह लाइफलाइन कटी हुई है। लॉकडाउन के चलते उद्योग-धंधे बंद हैं इस कारण से उनसे भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं।

इसलिये मजबूर होकर उन्हें जनता से मासिक बिल का भुगतान करने का तकाज़ा करना पड़ रहा है। यह लाइफलाइन हमारे हाथ में है। इसको काट दीजिये, अपने पूर्वाग्रह के तहत, एक समाज-विशेष के प्रति नफ़रत फैलाने वाले मीडिया के साथ असहयोग करना शुरू कर दीजिये। यक़ीन जानिये, थोड़े ही दिनों में उनको असली पत्रकारिता का "भूला हुआ सबक़" याद आ जाएगा। लेकिन इसके साथ ही आपके मन में एक सवाल आ रहा होगा,

■ हमें ख़बरें और जानकारियां कैसे मिलेंगी?
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इसके लिये निम्नलिखित काम किये जाने चाहिये,

01. जो मीडिया सही रिपोर्टिंग कर रहा है, उसका सहयोग जारी रखें। चाहे वो अख़बार हो या न्यूज़ चैनल हो।

02. ग़लत रिपोर्टिंग करने वाले अख़बार का पीडीएफ वर्ज़न पढ़िये और उन पर नज़र रखिये। वो जब भी कोई ग़लत तथ्यों पर आधारित ख़बर छापे, उससे जवाब तलब करें और ज़रूरी हो तो उसके ख़िलाफ़ लीगल एक्शन लें।

03. यहाँ एक बात और बता दें। बहुत से अख़बार अपने पीडीएफ वर्ज़न के लिये भी पैसा लेते हैं। एक व्हाट्सएप ग्रुप के सदस्य, आपसी चंदा करके ज़रूरी-ज़रूरी अख़बार की एक कॉपी का चन्दा भुगतान कर दें। उस अख़बार को ग्रुप में डाल दें और सब लोग पढ़ लें।

■ इससे क्या होगा? आइये समझ लें
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एक अख़बार के प्रिंट वर्ज़न की क़ीमत है, 4.50 रुपये। इसमें 50% हिस्सा यानी 2.25 रुपये अख़बार ऑफिस में जाते हैं और बाक़ी पैसा थोक वितरक, रिटेलर व हॉकर के बीच बंटता है।

राजस्थान के 2-3 बड़े शहरों में इस असहयोग आंदोलन से एक अख़बार की अगर 10 हज़ार प्रतियां भी बंद कर दी जाएं, तो हमारे पास 45 हज़ार रुपये रोज़ के हिसाब से 13 लाख 50 हज़ार रुपये प्रतिमाह बचेंगे और उस अख़बार को 6 लाख 75 हज़ार रुपये प्रतिमाह का नुक़सान होगा। जैसे-जैसे बहिष्कृत कॉपीज़ की तादाद बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे उस पूर्वाग्रही अख़बार का नुक़सान बढ़ता जाएगा। ऐसा काम देश के हर राज्य में किया जाए।

■ असहयोग के सम्भावित साइड इफेक्ट्स
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01. हॉकर्स, जो कि ग़रीब-मध्यम वर्ग से आते हैं उनको आर्थिक नुक़सान हो सकता है।

इसकी भरपाई समाज-स्तर पर आर्थिक सहायता देकर की जा सकती है। जिस तरह इस समय राशन किट बांटकर की जा रही है। एक अख़बार बांटने की मज़दूरी क़रीब 1 रुपया मिलती है। 10 हज़ार अख़बार बंद करने पर मासिक 3 लाख रुपये। अगर अख़बार-बंदी के पैसों से बने फंड से इस रक़म का भुगतान कर भी दिया जाए तब भी समाज के पास 10 लाख 50 हज़ार रुपये बचेंगे।

02. प्रतिशोधी रवैया अपनाते हुए वो अख़बार और ज़्यादा ज़हर उगलने लगे।

ऐसी परिस्थिति आने पर उस अख़बार के ख़िलाफ़ अदालत में ज़बरदस्त तरीक़े से मोर्चा खोल दिया जाये। हॉकर्स की मदद करने के बाद अख़बार-बंदी से प्रतिमाह बचने वाले 10 लाख रुपये से क़ाबिल वकीलों की एक बड़ी टीम मुक़ाबले के लिये उतारी जा सकती है।

■ ऐसा कब तक करना चाहिए?
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जो अख़बार एक समुदाय के बहिष्कार का आह्वान करे उसे, ईमानदार पत्रकारिता सिखाने के लिये यह क़दम बहुत कारगर होगा। जब वो अख़बार सही तर्ज़ पर आ जाये तो उसके साथ सहयोग फिर से शुरू कर दिया जाये।

दोस्तों! इस असहयोग आंदोलन के लिये यह सबसे सही वक़्त है। जब तक देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आएगी तब तक मीडिया को विज्ञापन से होने वाली आय बाधित रहेगी।

स्पष्टीकरण : हम ख़ुद मीडिया का एक हिस्सा हैं। हमारे मन में किसी भी अख़बार या न्यूज़ चैनल के प्रति दुराग्रह या दुर्भावना नहीं है। लेकिन असली मीडिया का काम है, अन्याय का विरोध करना और हम वही कर रहे हैं।

हम एक बात और स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि असहयोग का यह आह्वान सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय के हितों की रक्षा के लिये नहीं है। अगर भविष्य में किसी अख़बार ने हिंदू समाज के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह बरता और ग़लत रिपोर्टिंग की, तो उस वक़्त भी हम उस अख़बार के ख़िलाफ़ ऐसा ही आह्वान करेंगे।

अगर आप इन विचारों से सहमत हैं तो सबसे पहले इस पोस्ट को ज़्यादा से ज़्यादा शेयर करके जनमत तैयार करने में जुट जाएं। जब अपने वजूद को बचाने का सवाल हो तो अहिंसात्मक तरीक़े से यह प्रतिरोध हमें करना ही होगा।

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