मोदी सरकार 2.0 : पहले साल के नेगेटिव पॉइंट्स
अगर हम जाइज़ा लें तो बीते एक साल में कुछ ऐसी बातें हुईं जो देश में हित नहीं थीं और ऐसा नहीं होना चाहिये था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल 31 मई 2020 को पूरा हो गया। 30 मई को प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों को चिट्ठी लिखी थी, जिसे आपने पढ़ा होगा। इस चिट्ठी में उन्होंने बीते साल एक साल में सरकार की उपलब्धियों और चुनौतियों का ज़िक्र किया है। उन्होंने अपनी चिट्ठी में धारा-370 हटाने, राम मंदिर, तीन तलाक और नागरिक संशोधन बिल (CAA) का जिक्र किया है। आज के ब्लॉग में 7 अहम मुद्दों पर चर्चा की गई है। सलीम ख़िलजी चीफ़ एडिटर आदर्श मुस्लिम
जम्मू-कश्मीर में लागू धारा-370 को बेअसर करने का विरोध, कश्मीर घाटी को छोड़कर कहीं और नहीं हुआ। राम मंदिर मुद्दे का निपटारा सुप्रीम कोर्ट द्वारा हो गया। बीजेपी के घोषणा-पत्र के बरसों पुराने दो बड़े अहम मुद्दे पूरे हो गये। ट्रिपल तलाक़ पर रोक का क़ानून संसद के दोनों सदनों से पास हो गया। इसके बाद मोदी सरकार अति-उत्साह में आ गई, उसे लगने लगा कि वो सब-कुछ कर सकती है और कोई विरोध नहीं कर सकता। लेकिन इसके बाद कुछ मिस्टेक्स हो गईं। आइये, उन पर चर्चा करते हैं।
01-नागरिकता संशोधन बिल (CAA) व NPR-NRC को लेकर दंगे
मोदी सरकार में गृहमंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन बिल पेश किया जिसके मुताबिक, धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी व ईसाई धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी।
इस पर शायद ज़्यादा बावेला नहीं भी मचता अगर गृहमंत्री अमित शाह की विवादास्पद क्रोनोलॉजी पर ज़ोर न दिया गया होता। गृहमंत्री अमित शाह खुले शब्दों में कहा था, क्रोनोलॉजी समझिये, CAA के बाद NPR होगा और उसके बाद NRC आएगा। उन्होंने कहा था, एनआरसी लाकर देश से अवैध नागरिकों को बाहर कर दिया जाएगा। यहां सरकार की ओर से संवाद में चूक हुई और मुसलमानों के बीच संदेश गया कि उनको देश से बाहर निकाल दिया जाएगा।
नागरिकता संशोधन क़ानून बनने के बाद, देश में पहले ही रौष था क्योंकि इसको कई संगठन और लोग धर्मनिरपेक्षता और संविधान की मूल भावना के खिलाफ बता रहे थे। इसके ख़िलाफ़ धरना-प्रदर्शन चल रहे थे। धरना-स्थल के पास कुछ हिंदुत्ववादी लोगों की ओर से हिंसक कार्रवाई करने की कोशिशें की गईं। उसके बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान, बीजेपी के कई नेताओं ने इन प्रदर्शनों के बारे आपत्तिजनक बयान दिये, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। दिल्ली में खौफ़नाक दंगे हुए।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, किसी की भी नागरिकता खतरे में नहीं है। एनआरसी लाने की बात झूठ है लेकिन इस पर किसी ने यक़ीन नहीं किया, क्योंकि उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह के बयान को सिरे से खारिज नहीं किया था।
इस घटना से देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को ज़बरदस्त आघात पहुंचा। हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई और चौड़ी हुई। यह नहीं होना चाहिये था।
02. कुछ न्यूज़ चैनल्स का रेडियो-रवांडा बन जाना
1994 में रेडियो रवांडा की ज़हरबयानी के चलते अफ्रीकी देश रवांडा में ज़बरदस्त नस्लीय हिंसा हुई थी। 100 दिन चली उस हिंसा में क़रीब 8 लाख लोगों की हत्या हुई। लाखों औरतों को सेक्स स्लेव बनाया गया। आधुनिक इतिहास में मीडिया के दुरुपयोग की यह सबसे दुखद मिसाल है।
अप्रैल 2020 में कोरोना वायरस के फैलाव के चलते, कुछ मीडिया चैनल्स ने एक मुस्लिम संगठन तब्लीग़ी जमाअत को दानव के रूप में पेश किया। देश में ज़बरदस्त माहौल ख़राब हुआ। उन मीडिया चैनल्स के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में एक केस भी चल रहा है, जिसमें केंद्र सरकार और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से 15 जून तक जवाब देने को कहा गया है कि उसने क्या कार्रवाई की?
अगर सरकार चाहती तो मीडिया चैनल्स को रोक सकती थी लेकिन सरकार की खामोशी से ग़लत संदेश गया। यह भी नहीं होना चाहिये था।
03. सोशल मीडिया पर मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक कमेंट्स
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति भक्तिभाव रखने वाले कई लोग, बरसों से मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ अशोभनीय और आपत्तिजनक टिप्पणियां करते रहे हैं। उनकी वजह से देश में दूषित वातावरण पनप रहा है। सत्ताधारी पार्टी के कई नेता भी ऐसी बयानबाज़ी करते रहते हैं, जिनसे उन लोगों को लगता है कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। यह ग़लत बात है।
हद तो उस वक़्त हो गई जब बीजेपी के एक युवा सांसद तेजस्वी सूर्या ने अरब मुस्लिम औरतों की बेडरूम लाइफ़ पर आपत्तिजनक टिप्पणी की। खाड़ी देशों में काम कर रहे कई अन्य हिंदुत्ववादी लोगों ने भी भद्दी टिप्पणियों के ज़रिए माहौल ख़राब किया। हालत इतने बिगड़े कि कई अरब देशों की सरकारों ने इसके ख़िलाफ़ नोटिस लिया और भारत सरकार को शिकायत की। इससे देश की उज्जवल छवि को नुक़सान पहुंचा। यह भी नहीं होना चाहिये था।
04. महाराष्ट्र में रातों-रात सरकार बनाना और फिर इस्तीफा देना
महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था और दोनों के गठबंधन ने मिलकर बहुमत भी पा लिया। लेकिन बाद में मुख्यमंत्री पद के लिए झगड़ा शुरू हो गया। शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिलाकर शपथग्रहण की तैयारी शुरू कर दी। जिस दिन शपथ होना था उससे पहले रात में एनसीपी नेता शरद पवार के भतीजे अजित पवार बीजेपी से मिल गये। सुबह 7 बजे के करीब देवेंद्र फडणवीस ने सीएम और अजित पवार ने भी उनके साथ जाकर राजभवन में शपथ ग्रहण किया। अजित पवार ने दावा किया उनके साथ कई विधायक आ गए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया जहां फ्लोर टेस्ट का फैसला सुनाया गया। लेकिन इससे पहले ही देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया। अजित पवार का दावा हवा-हवाई साबित हुआ।
इस पूरे घटनाक्रम से बीजेपी की भी काफी किरकिरी हुई। इसके साथ ही राजभवन और केंद्र सरकार पर भी सवाल उठे। ऐसा भी नहीं होना चाहिये था।
05. विपक्ष की भूमिका को नकारना
इसमें दो राय नहीं है कि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में प्रचंड बहुमत के साथ आई है और राज्यसभा में भी उसको कई दल समर्थन देने के लिए साथ खड़े हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विपक्ष की भूमिका भी होती है और सरकार से उम्मीद होती है कि सरकार देशहित में उससे भी सलाह-मशविरा ले।
मोदी सरकार की कार्यशैली में विपक्ष को कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती है। यह आरोप अक्सर कांग्रेस सहित विपक्ष के कई नेता लगाते हैं। हाल ही में लॉकडाउन को लेकर भी ऐसे आरोप लगे हैं। कांग्रेस ने अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये कई अच्छे और व्यावहारिक सुझाव दिये लेकिन सरकार ने उनको संजीदगी से नहीं लिया। यह भी नहीं होना चाहिये था।
06. बेरोज़गारी स्तर चरम पर
केंद्र में मोदी सरकार के 6 साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान देश में बेरोजगारी की दर बेतहाशा बढ़ी है। हालांकि सरकारी दावा है कि इसके लिये कई क़दम उठाए गये हैं और असंगठित क्षेत्र का डाटा नहीं होने से इसका कोई ठोस आंकड़ा नहीं है कि कितने लोगों को रोजगार मिला है।
लेकिन सच्चाई है कि बेरोज़गारी दूर करने के लिए 'मेक इन इंडिया' और 'स्किल इंडिया' जैसे कार्यक्रम ज़मीनी स्तर पर फेल साबित हुए हैं। ये रोज़गार देने में सक्षम साबित नहीं हुए हैं। दूसरी ओर सरकारी नौकरियों में भी अवसर दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। लॉकडाउन के बाद हालात और ख़राब हुए हैं। एक बड़ी संख्या बेरोज़गार हो गई है और यह सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। यह भी नहीं होना चाहिये था।
07. प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा
कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए बीते 25 मार्च 2020 से देशव्यापी लॉकडाउन जारी है। इसकी वजह से उद्योग-धंधे बंद पड़े हैं। ऐसा लग रहा है कि लॉकडाउन से प्रवासी मजदूरों को होने वाली समस्याओं का आंकलन सरकार ठीक से नहीं कर पाई और न ही उनके लिए कोई ठोस उपाय किये गये। कुछ समय तक तो प्रवासी मज़दूर हालात सामान्य हो जाने की उम्मीद में बैठे रहे लेकिन लॉक डाउन के निरंतर आगे बढ़ने से उनके सब्र का बांध छलक उठा और उन्होंने वापस अपने-अपने गांव जाने का फ़ैसला कर लिया।
ट्रेनें बंद, बसें बंद, यातायात के सभी साधन बंद थे। मज़दूरों के लिये खाने और रहने की पर्याप्त व्यवस्थाएं नहीं थीं। नतीजा यह हुआ कि जब मज़दूर हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी पैदल और साइकलों पर तय करके अपनों को घरों जाने लगे तो स्थिति बहुत ही दुखदायी हो गई। मीडिया में तस्वीरें वायरल हुई। इसे 1947 के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा गया। एक बार फिर भारत की उज्जवल छवि, अंतर्राष्ट्रीय पटल पर दाग़दार हुई।
सरकार पर भी दबाव बढ़ा तो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं। लेकिन उनमें क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है। देश के इतिहास में पहली बार कई ट्रेनें असल गंतव्य की जगह अन्य शहरों में पहुंच गई। लॉकडाउन से पहले अगर कोई ठोस नीति अपनाई गई होती है तो प्रवासी मजदूरों को इतनी दिक्कत न उठानी पड़ती। यह भी बहुत दुखद घटना है और ऐसा नहीं होना चाहिये था।
नोट : इस ब्लॉग में रेडियो रवांडा सहित कई अहम मामलों का ज़िक्र हुआ है, उनके बारे में ज़्यादा जानकारी के लिये More Blogs पर क्लिक करके पूर्व में पोस्ट किये गये ज्ञानवर्धक ब्लॉग्स पढ़ें। इस ब्लॉग को अपने दोस्तों-परिचितों को शेयर भी करें। शुक्रिया।
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