मस्जिदों से एक अपील!
ओ भारत की मस्जिदों!
तुम स्टेशनों से हट कर कहीं चली जाओ।
आख़िर तुमको कहीं जाना नहीं है
तो स्टेशनों पर क्यों खड़ी हो?
लोग स्टेशन आते हैं तो
ऐसा लगता है मस्जिद आए हैं।
मैं बांद्रा आता हूँ तो लगता है
मस्जिद आया हूँ।
तुम्हारी जगह मन्दिर होते तो यह डर न होता।
लोगों के लिए सुविधा होती।
दर्शन करके यात्रा आरंभ करते
जैसे दादर स्वामी नारायण का मन्दिर है।
वहाँ भीड़ लगे तो अच्छा लगता है।
भीड़ केवल मस्जिद के सामने डराती है।
भीड़ केवल शाहीन बाग में डराती है।
भीड़ केवल जमात की डराती है।
बाक़ी सब जगह की भीड़ ठीक है!
अभी तुम कहीं और चली जाओ!
स्टेशनों से हट जाओ।
रास्तों से हट जाओ।
चौराहों से हट जाओ।
बस अड्डों से हट जाओ।
हवाई अड्डों से हट जाओ।
ओ मस्जिदों!
तुम कहीं छिप जाओ।
समेट लो ख़ुद को।
तुम दिखती क्यों हो?
तुम्हारी मिनारे भी दूर से दिख जाती हैं।
और अज़ान कितनी दूर तक सुनाई देती है?
सबको छिपा लो।
चुप हो जाओ।
और कहीं चली जाओ।
ओ मस्जिदों!
✍🏻 बोधिसत्व, मुंबई
(यह पोस्ट मेरठ से एडवोकेट परवेज आलम सेंड की है)
नोट : यह कविता, मीडिया की उस मानसिकता पर तंज़ करने के लिये लिखी गई है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम का रंग देने के मौके तलाशते रहते हैं। हालिया मामला 14 अप्रैल 2020 को बांद्रा रेलवे स्टेशन के बाहर मज़दूरों की भीड़ जमा हो जाने का है।
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