क्या क़ुरआन की तिलावत से कोई फ़ायदा नहीं?

क्या क़ुरआन की तिलावत से कोई फ़ायदा नहीं?

सोशल मीडिया पर एक पोस्ट शेयर की जा रही है जिसका टाइटल है, क़ुरआन बग़ैर सोचे-समझे पढ़ना, सवाब की नहीं, लानत-फटकार की बात है। यूपी के एक वकील साहब ने इसे लिखा है। हम उन साहब का नाम उजागर किये बिना, आज के ब्लॉग में हम, इस मसले पर सही तथ्य आपके सामने पेश करेंगे ताकि ग़लतफ़हमियां दूर हो सके।

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला इर्शाद फरमाता है, ऐ ईमानवालों! बहुत ज़्यादा गुमान करने से बचो क्योंकि कुछ गुमान, गुनाह होते हैं। (सूरह हुजुरात : 12)

गुमान का मतलब होता है, धारणा बनाना। अल्लाह तआला ने बहुत ज़्यादा गुमान से रोका है। अब अगर कोई शख़्स, अपनी मनमर्ज़ी से अल्लाह तआला के बारे में कोई ग़लत धारणा बना ले तो ये कितना बड़ा गुनाह होगा? आज के ब्लॉग में हम उन वकील साहब ने जो लिखा उसे हूबहू नक़ल करने के बाद सही तथ्य पेश करेंगे ताकि आम मुसलमान, अल्लाह तआला के बारे में बदगुमानी करने से बच सके।

■ वकील साहब ने लिखा है,

अल्लाह, मुसलमानों से यह ज़रूर पूछेगा कि "तुमने हाईस्कूल तक 100 किताबें पढ़ी थीं तो सब सोच-समझकर ही पढ़ी थीं, अगर तुम सोच समझकर नहीं पढ़ते तो हाईस्कूल भी पास नहीं कर पाते. हमने तुम्हें एक किताब-क़ुरआन दिया था, वह तुमने सोच-समझकर नहीं पढ़ा. तुम उसे झूम-झूमकर पढ़ते रहे और सवाब समझते रहे,अब तुम ख़ुद ही बताओ कि तुमने यह काम अक़्लमन्दी का किया था या बेवक़ूफ़ी का. हमें कहना ही पड़ेगा कि हमने क़ुरआन को बग़ैर सोचे-समझे पढ़कर बेवक़ूफ़ी का काम किया था.

तब अल्लाह कहेगा कि सवाब के माअ़ने "इनाम या बदला" ही तो है. जब तुम्हें यह क़ुबूल है कि "बग़ैर सोचे-समझे क़ुरआन पढ़ना, बेवक़ूफ़ी था तो क्या मुझसे यह उम्मीद रखते हो कि मैं तुम्हें बेवक़ूफ़ी के काम पर इनाम दूँगा. क्या तुम मेरे बारे में यह गुमान रखते थे? मैं बेवक़ूफ़ों को इनाम दूँगा. इनाम अक़्लमन्दी के कामों पर मिलता है, बेवक़ूफ़ों को लानतें और फटकार मिलती हैं. जो बेवक़ूफ़ों को इनाम दे तो वह ख़ुद सुपर ईडिअट होता है.
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ऊपर जो बात आपने पढ़ी वो एक इंसान का मनगढ़त गुमान है। यह अल्लाह तआला का क़ौल नहीं है। अल्लाह ने क्या-क्या कहा है या क़यामत के दिन वो क्या-क्या कहेगा? उसके बारे में मुकम्मल जानकारी क़ुरआन व सहीह हदीसों में मौजूद है।

सही बात यह है कि क़ुरआन पढ़ने से सवाब मिलता है

सबूत के तौर पर क़ुरआन की एक आयत और एक हदीस पढ़िये, सारी बात क्लियर हो जाएगी।

◆ अल्लाह तआला का इर्शाद है, व रत्तिलिल क़ुरआन तरतीला (और क़ुरआन ठहर-ठहर कर पढ़ा करो)। (सूरह मुज़्ज़म्मिल : 4)

◆ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इर्शाद फ़रमाया, जिसने अल्लाह की किताब से एक हर्फ़ पढ़ा, उसके लिये एक नेकी है और उस एक नेकी का सवाब दस गुना है। अलिफ़-लाम-मीम एक हर्फ़ नहीं बल्कि अलिफ़ एक हर्फ़, लाम एक हर्फ़ और मीम एक हर्फ़ है। (तिर्मिज़ी)

अलिफ़-लाम-मीम का मतलब क्या है? कोई नहीं जानता, फिर भी अल्लाह ने उसके पढ़ने पर 3 नेकी देने का वादा किया है जो सवाब के ऐतबार से 30 नेकी है।

■ आगे वकील साहब ने लिखा है,

मुसलमानो! माहे रमज़ान क़ुरआन को सोचने समझने का ही महीना है. इस बार घर पर हो. ख़ाली भी हो. क़ुरआन को सोच समझकर पढ़िये.

क़ुरआन, हरगिज़ मुल्लों के लिये नाज़िल नहीं हुआ है. यह इंसान को एड्रेस है.इसकी किसी मुल्ला के पास फ़्रेन्चाइज़ी नहीं है.

क़ुरआन को समझने के लिए किसी इल्म की ज़रूरत नहीं है, क़ुरआन को बस वही लोग समझ सकते हैं,जो उसकी आयतों पर ग़ौरो फ़िक्र करते हैं

मुसलमानों! यह क़ुरआन का महीना है, यह हर मुसलमान के नाम अल्लाह की ईमेल है इस ईमेल को खोलो और पढ़ो. मुल्लाओं के दजल-फ़रेब से बाहर निकलो.
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(इसके बाद लेखक महोदय ने अपना नाम, पता व व्हाट्सएप नम्बर लिखा है, जिसको हम ज़ाहिर नहीं करेंगे लेकिन पर्सनली उन साहब को यह जवाबी ब्लॉग भेजेंगे, इंशाअल्लाह)

◆ यह सही बात है कि क़ुरआन के मआनी व मफ़हूम पर ग़ौर करना चाहिये। यह बात सच है कि क़ुरआन को समझकर पढ़ना चाहिये, लेकिन इसके इसके लिये किसी इल्म के ज़रूरत नहीं है, यह बात ग़लत है। ऐसी कई मिसालें हमारे सामने मौजूद हैं कि कुछ अज्ञानी लोगों ने अपनी समझ के मुताबिक़ क़ुरआन की मनमानी व्याख्या करके बदगुमानी फैलाने का काम किया है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने कुछ सहाबा की तारीफ़ बयान करते हुए उनसे क़ुरआन सीखने की ताकीद की। अहले-इल्म की ज़रूरत को सिरे से नकारना क़ौले-रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से इंकार करने के बराबर है।

आम मुसलमान, अगर अपने स्तर पर क़ुरआन को समझना चाहे तो उसे सबसे पहले अरबी भाषा, उसके पूरे ग्रामर (व्याकरण) के साथ सीखनी होगी। उसके लिये किसी अच्छे अरबी टीचर की ज़रूरत होगी।

क़ुरआन में बहुत सी बातें मुहावरे के अंदाज़ में कही गई है अगर उसका लफ़्ज़ी तर्जुमा करेंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। कई बातें तंज़ (व्यंग्य, ताने) के अंदाज़ में कही गई है, मिसाल के तौर पर, उनको दर्दनाक अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो ज़ाहिर है, अज़ाब ख़ुशख़बरी की बात नहीं है, लेकिन इसका मर्म समझने के लिये किसी अच्छे आलिम (विद्वान) की ज़रूरत पड़ती है।

अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि क़ुरआन, अल्लाह का कलाम है। इसकी बहुत बड़ी फ़ज़ीलत है। इसके एक हर्फ़ के पढ़ने पर 10 नेकियां मिलती है। इसकी तिलावत को ग़ौर से सुनने पर अल्लाह तआला ने रहम फ़रमाने का वादा किया है। और अल्लाह से डरते हुए क़ुरआन को समझने व ग़ौरो-फ़िक्र करने वालों को अल्लाह की तरफ़ से हिदायत व रहनुमाई नसीब होती है। यानी क़ुरआन को पढ़ना, सुनना व समझना ग़रज़ कि हर चीज़ की अहमियत है। इसके किसी भी एक हिस्से से इंकार करना बुरा गुमान है। अल्लाह तआला हम सबको सही समझ अता फ़रमाए और बदगुमानी से बचने की तौफ़ीक़ दे, आमीन।

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