क्या आधुनिक शिक्षा रिश्तों में रुकावट है?
जब हम इस्लाहे-मुआशरा या समाज सुधार की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले यह देखना चाहिये कि बिगाड़ पैदा होने की वजह क्या है? हमारे समाज में दहेज, निकाह की दावत और रस्मो-रिवाज लड़कियों की शादी में बड़ी रुकावट बन रहे हैं। उसकी रोकथाम करना ज़रूरी है लेकिन इनके अलावा भी कुछ और भी रुकावटें देखने में आ रही है।
1 अप्रैल 2021 के ब्लॉग भारी पड़ी दीन से दूरी में हमने मुस्लिम समाज के इलीट (संभ्रांत) तबके के खोखलेपन को उजागर किया था। आज के ब्लॉग में हम एक और सुलगती हुई समस्या से आपको रूबरू कराने की कोशिश करेंगे, इन् शा अल्लाह!
इस्लामी शरीअत ने शादी के वक़्त, हसब-नसब (ख़ानदान), माल-दौलत व ख़ूबसूरती देखने के बजाय दीनदारी को तरजीह देने की तलक़ीन की है। लेकिन हमारे मुस्लिम समाज में दीनदारी अव्वलीन तरजीहात (प्राथमिकता) में जैसे शामिल ही नहीं है।
इस्लामी शरीअत ने बच्चों का रिश्ता करते वक़्त कुफ़्व (बराबरी) का लिहाज रखने की भी तलक़ीन की है। अफ़सोस की बात यह है कि हमारे मुस्लिम समाज में कुफ़्व के ग़लत मायने गढ़ लिये गये हैं।
कुफ़्व का इस्लामी ऐतबार से मअना है, लड़का-लड़की के आदत-अख़लाक़ में बराबरी होना। मगर मुस्लिम समाज में ज़्यादातर लोग जाति, बिरादरी, नस्ल के एक जैसी होने को कुफ़्व समझते हैं। बहुत-सी जाति-बिरादरियों में ग़ैर-क़ौम या ग़ैर-बिरादरी में शादी करने को "बहुत बड़ा ऐब" समझा जाता है।
अब कोढ़ में खाज बनकर एक नई बला मुस्लिम समाज में घुस आई है, वो है ऊंची शिक्षा। जी हाँ! आला तालीम भी रिश्तों में रुकावट बन रही है।
कई घरों से ये उज्र सुनने को मिल जाता है कि उनकी लड़की तो MSc. पास है मगर लड़का उसके मुक़ाबले में कम पढ़ा-लिखा है। अक्सर यह देखने में आया है कि ज़्यादा पढ़ी-लिखी लड़की, कम पढ़े-लिखे लड़के को बैकवर्ड कहकर रिजेक्ट कर देती है।
अगर लड़का दीनदार है, उसके आदत-अख़लाक़ अच्छे हैं, कमाऊ है, रिश्ते-नाते की क़द्रो-क़ीमत व अहमियत को समझता है और दहेज की डिमाण्ड या ससुराल से माल-मताअ पाने की उम्मीद नहीं रखता है तो वो इस्लाम की नज़र में "बेहतरीन रिश्ता" है, भले ही वो दुनयावी तालीम में कम पढ़ा-लिखा हुआ हो।
जो लोग इस बात को समझते हैं, उनके घरों की लड़कियों के रिश्ते वक़्त पर हो जाते हैं लेकिन जो लोग सर्वगुणसम्पन्न लड़के की तलाश में रहते हैं उनके घरों की बेटियों की या तो शादी की उम्र बीती जा रही है या फिर वे घर की दहलीज लाँघ रही हैं।
■ एजुकेशन हासिल करने का मक़सद क्या?
दीनी तालीम से इंसान के अख़लाक़ संवरते हैं तो दुनयावी तालीम आम तौर पर नौकरी करने, बिज़नेस या रोज़गार पाने के लिये हासिल की जाती है। बहुत कम लोग होते हैं जो सिर्फ़ अपने शौक़ पूरे करने के लिये कोई डिग्री कोर्स करते हैं।
मुस्लिम समाज में हिंदुओं के मुक़ाबले में बेरोज़गारी कम है। उसकी वजह यह है कि ज़्यादातर मुस्लिम लड़के अगर शिक्षा के बाद कोई रोज़गार का अवसर महसूस नहीं करते तो वे डिग्रीधारी बेरोज़गार बनने के बजाय, किसी न किसी रोज़गार को अपना लेते हैं।
इसके विपरीत मुस्लिम समाज में आजकल यह चलन देखने को मिल रहा है कि लड़कियां आला तालीम में लड़कों से आगे निकल रही हैं। फिर शादी के वक़्त लड़कियों की यही योग्यता सबसे बड़ी रुकावट बन जाती है।
■ इस समस्या का हल क्या है?
लड़कियों की इस बात के लिये काउंसिलिंग की जाए कि अगर कोई अच्छे अख़लाक़ वाला लड़का, तालीम के मामले में उससे कमतर भी है तो उससे शादी कर लेना उसके हक़ में बेहतर है। तालीम की बराबरी को ईगो न बनाएं।
अगर हम अपने घरों में बच्चों को थोड़ा वक़्त दें और उन्हें दीनदारी की अहमियत का एहसास दिलाएं तो बच्चों की शादी में दुनयावी ईगो रुकावट नहीं बनेगी, इन् शा अल्लाह! इस ब्लॉग को अपने परिचितों के बीच शेयर करके मुस्लिम समाज सुधार अभियान को मज़बूत करें।
वस्सलाम,
सलीम ख़िलजी
(एडिटर इन चीफ़, आदर्श मुस्लिम व आदर्श मीडिया नेटवर्क)
जोधपुर राजस्थान। व्हाट्सएप न. 9829346786
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