एनकाउंटर और राजनीतिक सोशल मैसेज
पुरानी फिल्मों में जो होता था, वही आजकल राजनीति में हो रहा है। हीरो जब विलन को मारता था तो दर्शक ताली बजाते थे। बात को समझने के लिये यह रिपोर्ट पूरी पढें।
आज वाली रिपोर्ट भी देश के नामी पत्रकारों के ट्वीट्स पर आधारित है। पुलिस के दिमाग़ में क्या था, यह शायद पहले से तय था। आज तक के पत्रकार राहुल कंवल के इन दो ट्वीट्स को देखिये।
एनकाउंटर की ख़बरें मीडिया में फ्लैश होने के बाद सब लोग अपने-अपने एनालिसिस में लग गये। नेताओं के बयान भी इस बारे में आने लगे। विकास दुबे को मरवाने के पीछे की कहानियों पर चर्चाएं चलने लगीं। सबके अपने-अपने क़यास थे।
यूट्यूब के एक ख़बरिया चैनल ने मैन स्ट्रीम मीडिया की लीक से हटकर एक नई थ्योरी पेश की। उसने बड़े अधिकारियों के बयानों में विरोधाभास को आधार बनाते हुए दावा किया कि विकास दुबे एनकाउंटर पुलिस के छोटे अधिकारियों की प्लानिंग थी। उस चैनल के मुताबिक़ विकास दुबे की ज़बान खुलने पर पुलिस के छोटे अधिकारियों के साथ उसकी मिलीभगत का पर्दाफाश हो सकता था।
लेकिन असली बात शायद कुछ और ही है। इसका अंदाज़ा हम आज तक चैनल के वरिष्ठ पत्रकार रोहित सरदाना के इस ट्वीट से लगा सकते हैं,
रोहित सरदाना का यह ट्वीट साफ़ शब्दों में राजनीतिक संदेश की बात कह रहा है। इस ट्वीट से यह बात निकलकर सामने आ रही है कि उत्तरप्रदेश की योगी सरकार, शायद जनता को संदेश देना चाहती है कि अपराधियों को अदालत से बाहर तुरंत सज़ा देकर उन्हें तालियां बजाने का अवसर दिया जाएगा।
अब सवाल यह है कि इस घटना में उत्तरप्रदेश के बाहुबली नेताओं के लिये सरकार का क्या संदेश है? इसके जवाब में हमें नब्बे के दशक में आई फ़िल्म काला धंधा गोरे लोग का यह गीत याद आ रहा है,
रख दिया पिस्तौल तेरे सामने ऐ यार ले,
हमसे करले दोस्ती या ख़ुद को गोली मार ले।
सुना है कि विकास दुबे का संबंध समाजवादी पार्टी के साथ था। कहा जाता है कि इसी कारण बीजेपी नेता संतोष शुक्ला की हत्या के आरोप में सबूतों के अभाव में बरी कर दिये जाने के अदालती फैसले की तत्कालीन सपा सरकार ने हाईकोर्ट में अपील नहीं की थी। अगर यह सच है तो फिर यही कहा जा सकता है कि अपराधी वो नहीं है जो अपराध करता है बल्कि अपराधी वो है जो किसी सत्ताधारी पार्टी के साथ नहीं है।
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