देश पर बड़ी भारी पड़ीं नरेंद्र मोदी की ये तीन बातें

देश के मशहूर इतिहासकार राम चंद्र गुहा ने कोरोना संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसलों पर सवाल खड़े किए हैं। एनडीटीवी के लिये लिखे एक लेख में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन बातें देश पर बड़ी भारी पड़ीं। इस लेख में उनके बारे में चर्चा की गई है।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा कि मोदी सरकार जब अपने दूसरे कार्यकाल की पहली वर्षगांठ मना रही है, ऐसे में दो वरिष्ठ स्तंभकारों ने उनके कार्यकाल का गंभीरता से मूल्यांकन किया है। दोनों स्तंभकारों को उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी एक आर्थिक सुधारक साबित होंगे लेकिन दोनों स्तंभकार अब निराशा महसूस कर रहे हैं।

इंडियन एक्सप्रेस में लिखे कॉलम में तवलीन सिंह का मानना है कि ये विफलताएं अरुण जेटली की अकाल मृत्यु का परिणाम थीं, जिसके बाद (या उन्होंने दावा किया), अचानक, सरकार की प्राथमिकताएं और छवि नाटकीय रूप से बदल गई।

द प्रिंट में शेखर गुप्ता इसके लिये उन आईएएस अधिकारियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं जो नरेंद्र
मोदी को सलाह देते हैं। उन्होंने मौजूदा नौकरशाहों की तुलना नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान रहे आईएएस अधिकारियों से की है।

राम चंद्र गुहा आगे लिखते हैं, मेरा अपना विश्लेषण थोड़ा अलग है। वो कहते हैं कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में इसलिये निराश नहीं किया कि उनके पास अच्छे या खराब सलाहकार थे, या कुछ समय से पहले चल बसे बल्कि यह उनकी अपनी गलतियां और असफलता है। इस संबंध में तीन बातें खास हैं जिनसे यह समझने में मदद मिलेगी कि दो बार मजबूत जनादेश हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी आर्थिक मोर्चे पर उस तरह की प्रगति नहीं दर्शा पाए जो उनके समर्थक उनसे अपेक्षा करते थे।

पहली बात विशेषज्ञों और उनकी विशेषता पर संदेह करना है। मोदी ने जिस तरह खुद को बनाया है, जिस तरह अपनी समझ के बूते शिखर छुआ है, इसमें उनकी अपनी सोच और इच्छाशक्ति शामिल है। प्रधानमंत्री मोदी उन लोगों को लेकर सशंकित हैं जिन्होंने एलिट संस्थानों से औपचारिक शिक्षा हासिल की है। उनका बयान हार्ड वर्क टू हार्वर्ड इस धारणा की स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति थी।

नोटबंदी की आपदा, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को कई साल पीछे धकेल दिया, टाली जा सकती थी यदि नरेंद्र मोदी ने पेशेवर और शिकागो से पढ़ने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर की बात सुन ली होती।

इसमें हाल ही में कोरोना का संकट है। इस संकट की गंभीरता भारत में कम हो सकती थी यदि नरेंद्र मोदी ने देश के शीर्ष महामारी विशेषज्ञ की सलाह पर नीति बनाते ना कि अपनी इच्छा के अनुसार।

दूसरी बात, जो कि पहली बात से ही जुड़ी हुई है वह है पर्सनेलिटी का कल्ट, जिसे प्रधानमंत्री ने खुद ही अपने चारों तरफ तैयार किया है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ टेक्नोक्रेट के रूप में काम कर चुके शख्स ने मुझसे कहा कि, यह नियम जो सभी सलाहकारों ने देखा कि खुशामद करनी है लेकिन क्रेडिट नहीं लेना है। "मोदी है तो मुमकिन है" का नारा, जिस पर मोदी ने साल 2019 का चुनाव जीता, पूरी बात कह देता है।

◆ सिर्फ मोदी ही आतंकवाद को मात दे सकते हैं।
◆ मोदी और सिर्फ अकेले मोदी ही पाकिस्तान (और अब चीन) को धूल चटा सकते हैं।
◆ मोदी अपने आप ही भ्रष्टाचार को ख़त्म कर सकते हैं।
◆ मोदी निश्चित रूप से भारत को विश्व गुरु बना सकते हैं।

इस तरह की सोच सत्ता पक्ष के भीतर सर्वव्यापी है। लेकिन भारत जैसे बड़े और जटिल देश को एक व्यक्ति की इच्छा के बल पर प्रभावी ढंग से और अच्छी तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, भले ही व्यक्ति दूरदर्शी और मेहनती हो।

रामचंद्र गुहा आगे लिखते हैं वह जिस आत्मविश्वास और शक्ति के साथ काम करते है, उस हिसाब से प्रधानमंत्री का व्यवहार बताता है कि वह अपने अंदर से, कुछ हद तक असुरक्षित आदमी हैं। उनके आसपास और केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पदों गुजरात कैडर के अधिकारियों का प्रभाव इस बात का एक संकेत है। दूसरी उनकी प्रवृत्ति कुछ आईएएस अधिकारियों को इसलिये अलग करने की है कि वे एक समय कांग्रेस सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं।

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी से इतनी निराशा की तीसरी वजह यह है कि वे दिल से एक सांप्रदायिक संघी बने हुए हैं। अपने सार्वजनिक वक्तव्यों में, वह सावधानीपूर्वक सांप्रदायिक रूप से प्रकट नहीं होने के लिये सावधान रहे हैं। हालांकि कहीं-कहीं वह फिसल जाते हैं, जैसा कि उनकी नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों को लेकर उन्होंने था कि ये जो आग लगा रहे हैं, ये कौन है उनके कपड़ों से ही पता चल जाता है।

इस संबंध में कई मामलों में उनकी चुप्पी सबसे स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

◆ प्रधानमंत्री मोदी उस समय चुप रहे जब एक कैबिनेट मंत्री सार्वजनिक रूप से निर्दोष मुसलमानों को कथित रूप से पीट-पीट कर हत्या करने वालों की प्रशंसा कर रहे थे।

◆ जब उनके गृह मंत्री यह कह रहे थे कि मुसलमान ‘दीमक’ हैं।

◆ प्रधानमंत्री उस समय भी चुप रहे जब भाजपा के आईटी सेल ने तबलीगी जमात के मुद्दे को सांप्रदायिक रंग दिया।

इन सब से ऊपर उन्होंने साफ तौर पर विभाजनकारी नागरिकता संशोधन अधिनियम का समर्थन किया जो बाद में कानून बन गया। इससे पता चलता है कि वह मुख्य रूप से हिंदुत्व की हठधर्मिता के लिए प्रतिबद्ध हैं कि भारत मूल रूप से एक हिंदू राष्ट्र है।

नरेंद्र मोदी ने 2014 में अच्छे दिन का वादा किया था। प्रधानमंत्री बनने के छह साल पूरे होने का बाद भी यह मृग मारीचिका बना हुआ है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी को खुद इसे रोकना चाहिए। ऐसे में किसी विश्वस्त सहयोगी की मौत या कुछ अधिकारियों की अक्षमता नहीं बल्कि मोदी का खुद का अहंकार, विशेषज्ञों पर संदेह, किसी को श्रेय देने की अनिच्छा और संप्रदायवादी विचारधारा से पार पाने की उनकी अपनी असमर्थता है।

साभार : NDTV.Com

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