कोरोना-फोबिया अब ख़त्म किया जा रहा है

यह आर्टिकल बहुत अहम मुद्दे की तरफ़ आपकी तवज्जो दिलाने के लिये लिखा गया है, इसे पूरा पढ़ियेगा। इसमें एम्स नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया का एक वीडियो भी है, जिसमें वो कोरोना को साधारण बीमारी बता रहे हैं। ऐसा शायद इसलिये किया जा रहा है क्योंकि गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभालना है और इसी साल बिहार में विधानसभा चुनाव व मध्य प्रदेश में कई सीटों पर उपचुनाव भी होना है।
 
देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट कीर्तीश भट्ट अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर ओफ्फो ग्राफिक्स पोस्ट करते हैं। इन्फोग्राफिक्स की तर्ज पर बने इन ग्राफिक्स में देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर कुछ व्यंग्यपूर्ण बातें, काल्पनिक आंकड़ों के ज़रिए कही जाती हैं। हाल ही में उन्होंने कोरोना वायरस के प्रति लोगों के बदलते रवैये के बारे में एक ओफ्फो ग्राफिक पोस्ट किया था। यह ग्राफ (नीचे) बड़ी सीधी-सी बात कहता है कि मार्च में जब संक्रमण के मामले सीमित थे तब लोगों में इसका डर कहीं ज्यादा दिख रहा था और अब जून में जब संक्रमणों का आंकड़ा रोजाना नये रिकॉर्ड बना रहा है, लोगों ने इससे डरना कम कर दिया है।
 
 
जो बात कीर्तीश अपने ग्राफिक्स के जरिए कह रहे हैं, वह बीते कुछ दिनों से कई लोग कहते-समझाते नज़र आ रहे हैं। लॉकडाउन के समय कोरोना संक्रमण के मामलों की संख्या जहां महज 500 थी वहीं इसे खोले जाने के समय यह आंकड़ा दो लाख से पार पहुंचने को था। लेकिन इसके बावजूद मंदिर-मस्जिद से लेकर ऑफिस-दुकान, रेल और विमान सब खुल रहे हैं और लोग, थोड़ी कम संख्या में ही सही पर आते-जाते दिखाई देने लगे हैं। 
 
इनमें ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जिनका कामकाज दोबारा शुरू हो चुका है, एक बड़ा हिस्सा उनका भी है जो लंबे समय से अटके अपने ज़रूरी कामों को हालात और बिगड़ने से पहले पूरा करने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसके साथ ही थोड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो बीते दो महीनों से घर पर बंद रहकर उकता चुके हैं। भले ही मजबूरी में निकले या अपनी मर्ज़ी से, लोगों के बाहर निकलने से एक बात का अंदाज़ा मिलता है कि उनमें अब कोरोना वायरस को लेकर डर कम हुआ है।
 
कोरोना के प्रति डर का माहौल क्यों पैदा हुआ?
 
हमने 16 मार्च 2020 को, जनता कर्फ्यू के ऐलान से 6 दिन पहले, कोरोना-फोबिया शीर्षक से एक ब्लॉग पब्लिश किया था और अपील की थी कि कोरोना एक वायरसजनित बीमारी है, इसके प्रति सतर्कता ज़रूर बरतें लेकिन इससे आतंकित होने की ज़रुरत नहीं है। हमने लगातार ब्लॉग्स पब्लिश करके डर का माहौल कम करने की कोशिश की। 16 मार्च 2020 से 16 अप्रैल 2020 के बीच हमारे कुछ प्रमुख ब्लॉग्स के लिंक नीचे दिये गये हैं। उन्हें भी ज़रूर पढ़ियेगा।
 
 
 
असल बात यह है कि सरकार में बैठे लोगों ने ही कोरोना-फोबिया की रचना की। डरी हुई जनता शासकों को हमेशा अच्छी लगती है क्योंकि वो उनकी सत्ता को चुनौती नहीं देती। इसलिये जनता को विभिन्न तरीकों से डराकर रखा जाता है। 
 
22 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दिवसीय जनता कर्फ्यू की घोषणा की और उसी दिन ट्रेनें बंद कर दी गई। 24 मार्च 2020 की रात पूरे देश में बिना किसी पूर्व सूचना के देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया गया। यह लॉकडाउन बड़े सख्त नियमों के साथ लागू किया गया। 
 
भाषणों के ज़रिए और विज्ञापनों के ज़रिए डर का ऐसा माहौल बनाया गया कि घर में दुबककर बैठ जाने में ही जनता ने अपनी भलाई समझी। मीडिया ने भी भय के माहौल को और ज़्यादा खौफ़नाक बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। 
 
सोशल मीडिया पर अफवाहों का बाज़ार गरम था। किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है। कोविड-19 के मामले में भी यही हुआ। इस कोरोना-फोबिया के दो अहम परिणाम सामने आए,
 
01. अगर आस-पड़ौस में कोई कोरोना पोज़िटिव आ गया तो उसे मानव बम समझकर उसके साथ अछूतों जैसा बर्ताव किया जाने लगा।
 
02. डर के मारे मेडिकल क्षेत्र व सार्वजनिक सेवा से जुड़े लोगों के साथ दुर्व्यवहार किये गये।
 
जब यह डर हद से ज़्यादा बढ़ गया। जब मौत के डर से मज़दूरों ने पैदल अपने गाँव की राह पकड़ ली। जब अर्थव्यवस्था रसातल में जाने लगी, तब कहीं जाकर सरकार में बैठे लोगों को एहसास हुआ कि बहुत-कुछ ग़लत हो गया है। उसके बाद प्रचार माध्यमों के ज़रिए इस ‘कोरोना-फोबिया’ को दूर करने की कोशिशें शुरू हुईं।
 
 
इस वीडियो को देखिये। इसमें एम्स नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया यह कह रहे हैं कि कोरोना के 90% मरीज़ अपने-आप ठीक हो जाते हैं। यह बात अगर पहले ही कह दी जाती तो जनता में इतना भय पैदा नहीं होता।
 
महामारियों के जानकार कहते हैं कि कोई भी महामारी दो तरह से खत्म होती है, मेडिकली या सोशली। 
 
पहले तरीके से यानी मेडिकली कोई महामारी तब ख़त्म होती है जब उसका टीका या कोई प्रभावशाली इलाज खोज लिया जाता है; जैसे – मीजल्स (खसरा), चेचक या पोलियो के टीके खोजकर उन्हें खत्म कर दिया गया है। 
 
वहीं, दूसरे तरीक़े यानी सामाजिक तरीके से कोई बीमारी तब खत्म होती है जब लोगों में उसका डर ख़त्म होने लगता है। महामारी से उपजी विषम परिस्थितियों में भी लोग बीमारी से डरते और उससे जुड़ी चिंताएं करते-करते थक जाते हैं और उसके साथ जीना सीख लेते हैं।
 
कुछ मामलों में वैज्ञानिक कह रहे हैं कि एक बार संक्रमण होने पर छह महीने से एक साल के लिए आप इम्यून हो जाते हैं। सरकार भी अब हर्ड इम्यूनिटी के बारे में सोच रही है। भारत समेत कई देश अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या हर्ड इम्यूनिटी महामारी से निजात पाने का एक विकल्प हो सकता है? 
 
किसी समुदाय या जनसमूह में हर्ड इम्यूनिटी पैदा होने का मतलब उसके एक बड़े हिस्से में किसी संक्रामक बीमारी से लड़ने की ताक़त विकसित हो जाना है। ये लोग बीमारी के लिए इम्यून (रोग प्रतिरोधी) हो जाते हैं। जैसे-जैसे इम्यून लोगों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे संक्रमण फैलने का ख़तरा कम होता जाता है। इससे उन लोगों को भी परोक्ष रूप से सुरक्षा मिल जाती है जो इम्यून नहीं हैं। यह अवधारणा हर्ड इम्यूनिटी कहलाती है।
 
 
डरी हुई जनता को देखकर वोटों के ज़रिये चुने गये नेताओं को राजाओं जैसा एहसास तो महसूस हुआ लेकिन लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ गया। इसके अलावा अगर जनता इसी तरह डरे हुए कबूतर की तरह घरों में दुबकी रही तो आत्मनिर्भर भारत अभियान का बंटाधार हो जाएगा। और अन्त में लाख टके की बात, बिहार में इस साल के अन्त तक चुनाव हैं, उससे पहले जनता को नार्मल करना ज़रूरी है। इसलिये सरकार भी अब यही चाहती है कि लोग कोरोना-फोबिया से बाहर निकल आएं।
 
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