कैरी ऑन दोस्तों! क़ानूनी कार्रवाई की चेतावनी रंग ला रही है

7 अप्रैल 2020 को *जमीयत उलमा हिंद* ने *ग़ैर-ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग पर रोक के लिये मीडिया के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में केस फ़ाइल किया।* हमसे कई लोगों ने फोन और व्हाट्सएप के ज़रिए इस पर प्रतिक्रिया चाही कि इससे क्या-कुछ हो सकता है? आज की पोस्ट उसी के संबंध में है। इसे पूरा पढ़ें।

1999 में हमने आदर्श मुस्लिम अख़बार का प्रकाशन शुरू किया था। 21 साल से हम भी मीडिया का हिस्सा हैं। इस लम्बी मुद्दत में हमारा वास्ता कई तरह के पत्रकारों से पड़ा। प्रेस से जुड़े क़ानूनों से भी आगाही हुई। हमने इन 21 सालों में एक बात ख़ास तौर पर नोट की वो ये कि पुलिस, मीडिया से ख़ौफ़ज़दा रहती है। उसकी वजह यह है कि उनको यह डर रहता है कि चालान काटने और अन्य मामलों के दौरान होने वाली अवैध वसूली की ख़बर न छप जाए या टेलीकास्ट न हो जाए। यही वजह है कि थाने में मीडिया के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करवाने में दिक़्क़त आती है।

हम एक फेक्ट आपको बताते हैं। यातायात नियमों ऐसा कोई क्लाज़ नहीं है जिसके तहत पत्रकार को हेलमेट न लगाने की छूट हो। इसके बावजूद अक्सर पत्रकार बिना हेलमेट टू-व्हीलर चलाते हुए देखे जा सकते हैं और पुलिस उनका चालान नहीं काटती। पत्रकारों को इसका बख़ूबी एहसास है। इसलिये मीडिया से जुड़े लोग, जनता द्वारा दिये जाने पर, पुलिस केस की धमकी को सीरियसली नहीं लेते।

नेताओं को अपने बयानात और किये गये काम जनता को बताने के लिये मीडिया की ज़रूरत पड़ती है इसलिये वो भी उन पर दबाव डालने में गुरेज करते हैं। यही मजबूरी सामाजिक संगठनों के ज़िम्मेदारों की है इसलिये वे भी मीडिया की ग़ैर-ज़िम्मेदार, यहाँ तक कि समाज-विरोधी रिपोर्टिंग के ख़िलाफ़ भी खुलकर सामने नहीं आते हैं।

अब ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसका कोई समाधान नहीं है? हमारे एक वकील दोस्त ने 1999 में हमसे कहा था, अगर आप में अपनी बात कोर्ट को समझाने का हुनर हो तो आप बड़े से बड़े तीसमारखाँ को भी डिफेंसिव मोड में ला सकते हो। ग़ैर-ज़िम्मेदार मीडिया को उसकी हदें दिखाने का यही रास्ता है।

सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दाखिल होने के बावजूद मीडिया के तेवर में कोई सुधार नज़र नहीं आया क्योंकि उनको मालूम है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर वो कोर्ट को कन्विंस कर देंगे और कोर्ट उनके ख़िलाफ़ कोई कड़े दिशा-निर्देश जारी नहीं करेगा।

हमसे कई लोगों ने पूछा कि क्या किया जाये? तब हमने मानहानि का मुक़द्दमा करने और ख़बर/लेख की सत्यता की ज़िम्मेदारी क़ुबूल करने हेतु लीगल नोटिस भेजने की राय दी। रीडर्स की डिमांड पर हमने मानहानि क़ानून की जानकारी दी साथ ही उन्हें एक फॉर्मेट भी बताया। बाद में इन पोस्ट्स को सोशल मीडिया पर सार्वजनिक भी किया। कई लोगों ने अपने-अपने स्तर पर ई-मेल्स के ज़रिए ऐसा किया भी।

इसके कुछ सकारात्मक नतीजे सामने आने लगे हैं। कुछ अख़बारों और न्यूज़ चैनल्स की भाषा में थोड़ा सुधार दिखाई पड़ रहा है। इस पोस्ट के लिखे जाने तक ज़ी न्यूज़ और रिपब्लिक भारत अपनी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रिपोर्टिंग पर माफ़ी माँग चुके हैं।

इसलिये हम आपसे फिर एक बार अपील करते हैं कि बराबर चौकस रहिये। जो भी ख़बर ग़लत तथ्यों पर आधारित नज़र आए, उसकी संदर्भों की जानकारी सीधे उस मीडिया से मांगिये। आनाकानी करने पर उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई कीजिये।

याद रखिये, हमारी लापरवाही ने ही इस मीडिया को निरंकुश बनाया है। ऐसी ही जानकारियों के लिये हमारे साथ बने रहिये।

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