बीस साल बाद

बीस साल बाद

पुरानी हिंदी फिल्मों में हीरो, अदालत के फैसले में बरी होने के बाद कहता था, मुझे मेरी ज़िंदगी के वो 20 साल लौटा दीजिये जज साहब, जो मैंने बेगुनाह होने के बावजूद जेल में बिताए थे।

पिछले दिनों, उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट ने आगरा के विष्णु तिवारी को 20 साल बाद दलित महिला से बलात्कार के आरोप से बरी करते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दिया। सरकारी रिकॉर्ड में विष्णु तिवारी की छवि अब अपराधी की नहीं रही लेकिन 20 साल के दौरान समाज में ख़राब हुई उसकी छवि कैसे साफ़ होगी?

इसी तरह का एक मामला, सिमी से संबंध रखने के आरोप में साल 2001 में गिरफ़्तार किये गये उन 127 लोगों का है जिन्हें सूरत (गुजरात) की एक अदालत ने 20 साल बाद बरी कर दिया है।

जब अभियोजन पक्ष किसी भी मामले में आरोपी के ख़िलाफ़ लगाए गये आरोपों को अदालत में साबित नहीं कर पाता तो अदालत उस व्यक्ति को बरी कर देती है। आरोप साबित न होने के दो कारण होते हैं,

01. केस फ़र्ज़ी तथ्यों के आधार पर बनाया गया हो।
02. अभियोजन पक्ष, अदालत में व्यक्ति के अपराध को साबित करने के लिये पर्याप्त सुबूत व गवाह पेश न कर पाया हो।

सिमी से संबंध रखने के आरोप में गिरफ़्तार किये गये 127 लोगों को अदालत ने आरोप साबित न होने के आधार पर बरी किया। हालांकि इन सभी लोगों को साल-डेढ़ साल जेल में रहने के बाद ज़मानत तो मिल गई थी लेकिन वे फैसला आने से पहले तक, उस केस में मुल्जिम बने हुए थे। ख़बरों के अनुसार गुजरात सरकार इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ ऊपरी अदालत में अपील करने के बारे में लीगल ओपिनियन ले रही है।

एक सवाल यह है कि 20 साल बाद बरी करने का क्या लॉजिक है? सबसे पहले यह जान लीजिये कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ विचारों की आज़ादी संवैधानिक अधिकार है लेकिन यह अलग बात है कि कुछ विचारों को सरकार पसंद नहीं करती। जिन विचारों को सरकार पसंद नहीं करती, उन विचारों को और लोगों तक फैलने से कैसे रोका जाए? उसका एक तरीक़ा है, विरोधी को 20 साल तक अदालतों में चलने वाले मुक़द्दमों में उलझा देना।

जब कांग्रेस की सरकारें मज़बूत थीं तब उसका आरएसएस के प्रति भी कुछ ऐसा ही स्टैंड था। आरएसएस से जुड़े लोगों को भी अपनी संघी पहचान छुपाकर नौकरी करनी पड़ती थी।

20 साल में बहुत-कुछ बदल जाता है। मुक़द्दमा दर्ज होते समय जिसकी उम्र 30 साल होती है वो बरी होते समय 50 साल का अधेड़ हो जाता है। बच्चों की शादियां, घर-परिवार के बढ़ते ख़र्चे, समाज-परिवार से कटकर गुज़रा हुआ समय, उसके मन में बचे-खुचे सारे "क्रांतिकारी विचारों" को चूल्हे में डाल देता है। 20 साल बाद बरी होने वाला इंसान, जान बची और लाखों पाए मंत्र का जाप करता हुआ जज साहब से अपने बीते हुए 20 साल वापस लौटाने की मांग भी नहीं करता है क्योंकि वो फिल्मों का हीरो थोड़ी है।

कुछ साल पहले एक फ़िल्म बनी थी जिसका टाइटल था, जलाकर राख कर दूंगा सेंसर बोर्ड ने टाइटल पर आपत्ति जताकर सर्टिफिकेट देने से इंकार कर दिया था। फिर फ़िल्म निर्माता ने दो शब्द और जोड़कर, फ़िल्म का टाइटल, पाप को जलाकर राख कर दूंगा कर दिया, सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेट जारी कर दिया। फ़िल्म में लीड रोल मशहूर अभिनेता और बीकानेर (राजस्थान) के पूर्व बीजेपी सांसद धर्मेंद्र ने किया था।

असल में सेंसर बोर्ड को लगा होगा कि किसी को जलाकर राख कर देना मुमकिन है इसलिये टाइटल भड़काऊ है। लेकिन पाप को जलाकर राख कर देना महज़ एक आदर्शवादी बात है जो सिर्फ़ सुनने में ही अच्छी लगती है। यही हाल विचारों का है। जब सरकारी तंत्र को लगता है कि किन्हीं विचारों के फैलाव से उसे ख़तरा पैदा हो सकता है तो वह उसे रोकने के लिये कार्रवाई करती है।

हमारा यह मानना है कि अदालती कार्रवाई की रफ़्तार तेज़ होनी चाहिये। अगर कोई अपराधी है तो उसे जल्द सज़ा मिले और अगर वो बेगुनाह है तो वो सम्मान के साथ जी सके।

सलीम ख़िलजी
(चीफ़ एडिटर आदर्श मुस्लिम व आदर्श मीडिया नेटवर्क)
जोधपुर राजस्थान

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