बर्बादी का इंतज़ार करना है या बदलाव की शुरुआत?
क्विंट हिंदी के एक विशेष शो कथा ज़ोर गरम का ये वीडियो पूरा देखिये, सुनिये और फिर फैसला कीजिये कि हमको आपस में लड़कर पूरी क़ौम को बर्बाद करना है या एक फिर साथ खड़े होकर सम्मान के साथ यहां जीना है। इस ब्लॉग को पूरा पढ़िये, इसकी एक-एक लाइन आपके विचारों को झकझोरने का काम करेगी
एक शुभचिंतक ने वीडियो के साथ एक पोस्ट भेजी है। हमें उसका कंसेप्ट अच्छा लगा, इसमें कुछ ज़रूरी बदलाव करके और कुछ नए तथ्य जोड़कर एक ब्लॉग के रूप में आपके सामने पेश किया जा रहा है। आपसे गुज़ारिश है कि इसे पूरा पढ़ने के बाद चिंतन-मनन भी करें।
कभी सोचा हमने कि हमारी असल समस्या क्या है? एक-दूसरे की मुखबिरी, एक-दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की फिक्र, एक-दूसरे की इज्ज़त उतारने की कोशिश, एक-दूसरे से हसद और खुदगर्ज़ी। क्या ये सब चीज़ें हमारे समाज की पहचान नही बन गईं?
हाल ही में हमने लॉकडाउन की संगीनी देखी है। कुछ अच्छी बातें सामने आईं तो कुछ ग़लत बातें भी छुप न सकीं। हम आपके सामने कुछ मिसालें पेश करना चाहते हैं,
◆ कुछ लोगों ने अल्लाह की रज़ा के लिए ज़रूरतमंदों की खबरगीरी की तो कुछ लोगों ने इसके ज़रिए सेल्फ़ पब्लिसिटी की।
◆ लॉकडॉउन के संगीन दिनों में अल्लाह की इबादत करने और एक-दूसरे का दर्द महसूस करने के बजाय, कुछ लोगों ने ख़ूब मुनाफाखोरी की, ज़रूरत की चीज़ों मसलन सब्ज़ी, गोश्त और ना जाने किस-किस तरह की गई? जो मौक़ा अल्लाह तआला ने सवाब हासिल करने के लिये दिया था उसे अल्लाह की नाराज़गी में बदलने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
◆ तस्वीर का दूसरा रुख भी अच्छा नज़र नहीं आया। जिन लोगों की मदद ग़रीब समझ कर की गई, “उनमें से कुछ लोगों ने” सामान जमा ही नहीं किया बल्कि राशन किट देने वालों की खून-पसीने की कमाई के पैसे से की गई मदद का सामान सस्ते दामों में दुकानदारों को बेच दिया और बदले में महंगे दामों पर गुटखा, खैनी जैसी नशाआवर चीज़ें खरीदीं।
हम अपने-आप से सवाल पूछें कि ऊपर लिखे काम जिन-जिन लोगों ने किये, उनसे क्या क़ौम की भलाई की उम्मीद की जा सकती है?
मुसलमानों के सोशल और इकोनॉमिक बॉयकॉट की तदबीरें की जा रही हैं। मुसलमानों को बाहर काम नहीं दिया जा रहा है। लेकिन हम अपना जाइज़ा लें कि जो भी अल्लाह का बंदा हमको काम देता है, क्या हम उसी को नुक़सान पहुंचाने का काम नहीं करते हैं? देर से काम पर जाना और जल्दी काम छोड़ देना, बहुत से लोगों की आदत बन चुकी है।
हम अपनी दुनिया में मस्त व मगन हैं। हमको ख़बर ही नहीं है कि हमारे लिये लड़ने वाले, शाहीन बाग और उससे प्रेरित आन्दोलनों से जुड़े लोगों के साथ-साथ जामिया के बहुत से स्टूडेंट्स को सरकार ने लॉक डॉउन जैसे माहौल में भी जेल में बंद कर दिया है, इनमें औरतें भी शामिल हैं। सफूरा ज़रगर प्रेग्नेंट हैं लेकिन उसको भी तिहाड़ जेल में महीनों से डाल दिया गया है। कोई सुनवाई नहीं है। बहुत से ग़ैर-मुस्लिम भी ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं, उनको अपने धर्म के लोगों द्वारा ट्रोल किया जा रहा है। क्या हमारे पास इन सब बातों पर सोचने का वक़्त है? अपना ख़ुद का चेकअप कीजिये कि हम कितने मतलबपरस्त हैं?
अगर आइन्दा अपने लिये, अपने बीवी-बच्चों और परिवार के लिये इज़्ज़त से जीने की उम्मीद बाक़ी रखनी है, तो फिर सुधार की शुरुआत करनी होगी। बगैर देरी किये, आज ही से; वरना इंतज़ार कीजिये एक और फिलिस्तीन का, एक और सीरिया का, बर्मा के रोहिंग्या और चीन के वीगर मुसलमानों जैसी ज़िंदगी जीने का।
हम हाल ही में एक खौफ़नाक दौर से गुज़रे हैं जब हमारा अपना घर, अपना मोहल्ला हमारे लिए जेल बन गया था। अब भी देर नहीं हुई, अल्लाह से तौबा करके अपने लोगों के लिये क़ानून के दायरे में रहकर आवाज़ उठाएं। जो ग़ैर-मुस्लिम भाई-बहन हक़ बात का और इंसानियत के जज़्बे का समर्थन कर रहे हैं, उनका न सिर्फ़ शुक्रिया अदा करें बल्कि उनके हाथ मज़बूत भी करें। दूसरे क्या कर रहे हैं? क्या लिख रहे हैं, क्या बक रहे हैं? इस पर ना जाकर ख़ुद को बदलें और सबके लिए दुआ करें।
अगर आप इन विचारों से सहमत हैं तो इस ब्लॉग को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाएं ताकि सबसे पहले वैचारिक मंथन शुरू हो सके। उसके बाद ही हम समाज-सुधार (सोशल रिफोर्म) का एक अभियान चला पाएंगे। सलीम ख़िलजी
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