आइशा ने मरकर एक समस्या को उजागर कर दिया* (आइशा के नाम एक चिट्ठी)

आइशा ने मरकर एक समस्या को उजागर कर दिया* (आइशा के नाम एक चिट्ठी)

वो मासूम चेहरा, बच्चों की तरह मासूमियत से सवाल करती थी। कहती थी, अब मैं अल्लाह से मिलूंगी, उनसे कहूंगी मेरे से कहाँ ग़लती रह गई?

न बिटिया न! तेरे में कोई ग़लती नहीं रही, ग़लती तो श्रेष्ठता का घमंड पालकर बैठे इस समाज में रह गई, जो ख़ुद को मुसलमान कहता है। जन्नत का "लाइसेंसशुदा दावेदार" कहता है।

प्यारी बिटिया! तेरी मौत तमाचा है उन नामनिहाद ग़ाज़ियों के गाल पर, जो "गज़वा-ए-हिंद" के नाम पर प्रोपेगैंडा फैला रहे हैं। जैसे वो अभी-अभी ईसा (अलैहिस्सलाम) से मिलकर आए हों।

हाँ बेटी! तेरी मौत उन तथाकथित क्रांतिकारियों के मुंह पर थप्पड़ है, जो देश में "निज़ामे-मुस्तफ़ा" लाने की बातें करते हैं लेकिन जिनकी बीवियां, अपने बेटे के ससुराल मिलने वाले माल की लालची हैं। वो लोग ख़ुद्दार बेटे पैदा नहीं कर पाए, जो अपनी कमाई से बीवी की ज़रूरतों को पूरा कर सके।

साबरमती की लहरों से उछलने वाले छींटे काश उन लोगों को जगा दे जिनके पास बड़ी-बड़ी दुनयावी इल्म की डिग्रियां हैं। मगर वो "फ़क़ीर" अपने बेटे की तालीम का "पूरा ख़र्चा" किसी बेटी के बाप से वसूलना चाहते हैं।

हाँ बिटिया! पूरा समाज गुनाहगार है तेरा! घर-घर में "सुक्खी लाला" है।

लेकिन बेटी, तूने मरकर एक मसले को ज़िंदा कर दिया। तूने तमाम "दहेज लोभियों" को नंगा कर दिया। उन लोभियों को भी जो भिखारी की तरह माँगकर दहेज लेते हैं और उन लोभियों को भी जो यह कहकर ले लेते हैं कि भई हमने मांगा थोड़ी था। अब दे रहे हैं तो इंकार कैसे करें? तूने उन लोगों को भी नंगा कर दिया जो अपने किसी भाई को शरीअत पर चलने देना नहीं चाहते, जबकि वो सादगी से अपने बच्चों की शादी करना चाहता है।

तूने इस समाज को आइना दिखा दिया। तूने कहा था, प्लीज़! कोई बखेड़ा खड़ा मत करना। काश! तू देख पाती कि तेरे बाद तेरे समाज के दर्दमंद लोगों ने कोई बखेड़ा तो खड़ा नहीं किया बेटा, बस विचारों का एक तूफ़ान खड़ा कर दिया।

लेकिन बेटी! तूने बहुत जल्दबाज़ी कर ली। अपने नफ़्स पर ज़ुल्म कर लिया। तेरा नाम आइशा था, तुझे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना चाहिये था। यक़ीन जान तू ख़ुद को अकेला नहीं पाती। तू पीएचडी करना चाहती थी तो तेरा सपना पूरा करने के लिये जालोर से सिर्फ़ 140 किलोमीटर दूर जोधपुर में "मौलाना आज़ाद यूनिवर्सिटी" के दरवाज़े खुले थे।

लेकिन तेरी क़ुर्बानी रायगां नहीं जाएगी। पूरे देश के मुस्लिम समाज में आक्रोश है। देश भर से "सामाजिक बदलाव" की आवाज़ उठ रही है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कहा था, हम देखेंगे ..... लेकिन हम कह रहे हैं, हम बदलेंगें ....... समाज को बदलेंगे। इन् शा अल्लाह।

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अब तक दर्जनों फोन कॉल्स और सैकड़ों मैसेजेज़ हमें मिल चुके हैं। शुक्रिया राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिसा, बंगाल के विभिन्न शहरों के उन सभी लोगों का जिन्होंने हमें फोन करके इस मुहिम में जुड़ने का यक़ीन दिलाया है।

सलीम ख़िलजी
(चीफ़ एडिटर आदर्श मुस्लिम व आदर्श मीडिया नेटवर्क)
9829346786

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