आत्मनिर्भर भारत बनाने की कोशिश और तस्करी शुरू होने का अंदेशा

आत्मनिर्भर भारत बनाने की कोशिश और तस्करी शुरू होने का अंदेशा

उदारीकरण के बाद यानी 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद देश में तरक़्क़ी की रफ़्तार तेज़ हुई। लोगों के जीवन-स्तर में भी सुधार आया। हालाँकि आर्थिक सुधारों के बाद भी देश में ग़रीबी ख़त्म नहीं हुई क्योंकि अमीरों के अन्दर और ज़्यादा दौलत कमाने की हवस है।

एक समय था जब रोज़मर्रा के इस्तेमाल की कई चीज़े, इलेक्ट्रॉनिक्स, सोना, चांदी और परफ़्यूम जैसी चीज़ों की तस्करी आम बात थी। आर्थिक सुधारों के बाद, खुली बाज़ार व्यवस्था अपनाने के नतीजे में एक काम ज़रूर हुआ, स्मगलिंग यानी तस्करी बंद हो गई। वजह साफ़ थी, जब सब कुछ सीधे रास्ते से लाया जा सकता है, उसी दाम पर बेचा जा सकता है, तो मामूली टैक्स या ड्यूटी चुकाने के बजाय चोर रास्ते से आने का जोखिम कोई क्यों उठाएगा?

भारत के सबसे तेज़-तर्रार उद्योगपतियों के संगठन सीआईआई के सालाना जलसे में ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि चमड़ा, जूते-चप्पल और फ़र्नीचर के साथ-साथ एयरकंडीशनर के उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर होने की ज़रूरत है। उन्होंने ये गिनाया था कि अभी देश में एसी की कुल ज़रूरत का तीस परसेंट हिस्सा इंपोर्ट होता है, जिसे रोकना ज़रूरी है।

अब जबकि हमारी सरकार ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है, तो कई लोगों के मन में ये आशंका बढ़ रही है कि कहीं फिर तस्करी का धंधा तेज़ तो नहीं हो जाएगा? क्या फिर ऐसे हालात बनेंगे जिसमें ईमानदारी से टैक्स चुकाकर सामान ख़रीदने वाले लोग नुक़सान में रहेंगे और तस्करों के हाथों वही सामान सस्ता ख़रीदने वाले पड़ोसी उन्हें मुँह चिढ़ाते दिखेंगे।

एक उदाहरण से समझ लीजिये। विदेश से आने वाला कोई भी इंसान अपने साथ एक मोबाइल फ़ोन और एक लैपटॉप तो ला ही सकता है। ऐपल का लेटेस्ट मैकबुक लैपटॉप भारत में पौने दो लाख रुपए का मिल रहा है और अमरीका में सवा लाख रुपए से कम का है। जब फ़र्क़ इतना ज़्यादा हो तो क्या कोई चांस नहीं लेगा?

मुद्दे की बात तो यह है कि आज की दुनिया में अगर आगे बढ़ना है तो अपनी इंडस्ट्री को मुक़ाबले में खड़े होने लायक़ बनाना होगा, न कि ड्यूटी की बैसाखी लगाकर किसी तरह खड़े रखना। अगर सरकार एक रास्ता बंद करेगी तो लोग दूसरा दरवाज़ा खोल लेंगे। ऐसी नीतियाँ हमें वापस 1970 के दौर में ले जा सकती हैं जहां लाइसेंस, परमिट और पाबंदियों का राज था। उनके भरोसे आत्मनिर्भर होने का सपना तब भी ख़ामख्याली ही साबित हुआ था।

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